रविवार, 7 जून 2020

घर और शहर

टूटे टूटे टुकड़ों से जो कुछ भी
बसाया है टीन टप्पर का शहर
बड़े सबर से भरे पूरे बसर का
ख़्वाब लगाया है दांव पर
कभी तो जज़्बे सा लगता है
कभी लगता है दीवानगी
कभी कहता है जो है सब यहीं है
फ़िर मुकर जाता है
जब हो बात सच की
दिल जानता है वो देता है झूठी गवाही
कहीं है अपना सब
तो अपने नहीं
कहीं अपने हैं तो अपना जो है वो नहीं
एक छत है सुनहरी अरमानों की
जहां भीड़ है बस अनजानों की
एक ज़मीं है मां की कोख़ सी नरम
मगर वहां पंख पसारने को
 सारा आसमां नहीं
एक महल है हसरतों का जिसे
घर बनाने की बेवजह है सारी मशक्कत
एक है गहरा दरख़्त मज़बूत
और एक है नन्हा शजर
एक टूटी फूटी छप्पर तले
छोटे छोटे बीजों की बोई है सारी जागीर
इक छत पर है नाम कल की सुबह का
इक ज़मीं है पीछे छूटी उम्र की तामीर
दुनिया से नहीं अरमानों से हैं खफा
इन अरमानों पे चढ़ी हैं कई
अनकही ठोकरों की कहानी
जिनकी मुस्कुराहटों के पीछे
 छिप जाती है मेरी पशेमां तन्हाई
 कितनी बार अश्कों के सितारे
 चमका देती है किनारों पर
जाने कितनी मजबूरियों की बानगी
 जब जब होती है पाओं तले ज़मीन से
एक अदद छत को रवानगी ।


@सौम्या वफ़ा ०।©

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