बादलों संग थोड़ा मैं भी बह जाती हूं
थोड़ी सी हवा की ढील हो
तो पतंग बन लहराती हूं
एक छत है बिना दीवारों
बिना छज्जों की
उसपर चढ़ बैठूं तो फ़िर
जाने क्या क्या बतियाती हूं
ज़मीं पे छोड़ के पाओं को
मुट्ठी में आसमां भर लाती हूं
गरम गरम छनते सूरज के गोले
और चांद का बताशा झोले में भर लाती हूं
पेट थोड़ा ख़ाली सा हो
या जेब सूनी सूनी
पर चंद हवा के खनकते सिक्कों से मैं
पसेरी भर मन भर लाती हूं
सुबह के भूले दिल को
शामों से बहलाती हूं
बादलों संग थोड़ा मैं भी बह जाती हूं।
सौम्या वफ़ा।© (२०/६/२०२०).
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें