प्यासे हमेशा ही भटके रहे हो
या फिर पिया है कभी जी भरकर
कहीं उड़ते चले जा रहे अब्रों को?
बिना किसी से कहे जलते रहे हो सदा
अनकही बातों में;
या फिर कभी सीपीयों की तरह समेटी हैं
ठंडी बूँदें सुलग रहे पोरों में,
और महसूस किया है बरसों से जलते ज़ख्मों का
आहिस्ते आहिस्ते ठण्ड में डूबते जाना;
और हर डुबकी के साथ
नया बनके उभरते आना,
या फिर यूँ ही छोड़ दिया था
ठण्ड में,
ठिठुरते दिल को बिना अपनी
हथेली की नरम गर्मी दिए;
सीत भरे कोनों में ?
कभी जब बहुत उमस बढ़ गयी हो
और लगा हो की अब दम घुटा की तब
तो क्या खोली थी,
कोई खिड़की बंद पड़े कमरों में
या यूँ ही छोड़ दिया था मासूम जान को
खोने के लिए;
किसी और का होने में?
या गले लगाया था उस दिन ख़ुद को,
ख़ुद को पा लेने में!
और उतरी थी बहार फिर से जब
सूने पड़े आँगन में
तो चमन को कह दिया था ख़ुदा हाफ़िज़,
फिर मिलेंगे किसी और बहाने से
या फिर बोये थे बीज मोगरे के;
और साफ़ किये थे इंतज़ार में रखे प्याले,
किसी नए अफ़सानानिग़ार की दावत को
प्यासे हमेशा ही भटके रहे हो
या फिर पिया है कभी जी भरकर
कहीं उड़ते चले जा रहे अब्रों को?...
सौम्या वफ़ा। ©
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