शनिवार, 20 जून 2020

क़दम

जिस घर से चले थे उसी की राह भूल जाते हैं
उठते डगमगाते क़दम कहीं गुम जाते हैं
कुछ को ख़ुद याद नहीं रहता कुछ भी
कुछ गुमशुदा हो जाते हैं
कुछ उन्हीं भूली बिसरी सी शक्लों में लौट आते हैं
कुछ मिल के भी नहीं मिलते
कुछ मिलते हैं तो
बस निशां रह जाते हैं
कुछ जाते हैं तो उन्हीं क़दमों पर
चौदह चांद चमक जाते हैं
कुछ को ढूंडो तो
सोलह सिंगार मिल जाते हैं
बाकी चार क़दम की तलाश में
बस इश़्तहार रह जाते हैं
कुछ क़दमों की आहट से
रोशन आंगन जगमगाते हैं
कुछ भटके थे सुबहो को
तो शाम को भी नहीं
लौट पाते हैं
नादां क़दम जिस घर से चले थे
उसी की राह भूल जाते हैं।




सौम्या वफ़ा।०

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें