दीवारों के कान होते हैं
मगर बोलती हैं खिड़कियां
कभी खोल के तो देखो
क्या बोलती हैं खिड़कियां
पर्दों के घूंघट में छिपी
जाने क्या क्या सोचती हैं खिड़कियां
चटकी सिटकनियों और पड़ी झुर्रियों
को शायद छिपाती हैं खिड़कियां
देखती हूं तो
आंखों में छप जाती हैं खिड़कियां
सलाख़ों के पीछे, जाले- जालियों के पीछे
सांस लेती,
फड़फड़ाती खिड़कियां
दिल में कोई खड़का सा खड़काती खिड़कियां
दीवारों के सीने को चीर
मुझे;
मैं, मैं हूं
ये बताती खिड़कियां
दीवारों के कानों पे
पहरेदारी करती ये खिड़कियां
दीवारें तो ख़ामोश हैं
कि दीवारों के कान होते हैं
मगर बोलती हैं खिड़कियां।
सौम्या वफ़ा।©
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें