बुधवार, 11 नवंबर 2020

बोलती हैं खिड़कियां

 दीवारों के कान होते हैं

मगर बोलती हैं खिड़कियां

कभी खोल के तो देखो

क्या बोलती हैं खिड़कियां

पर्दों के घूंघट में छिपी

जाने क्या क्या सोचती हैं खिड़कियां

चटकी सिटकनियों और पड़ी झुर्रियों

को शायद छिपाती हैं खिड़कियां

देखती हूं तो

आंखों में छप जाती हैं खिड़कियां

सलाख़ों के पीछे, जाले- जालियों के पीछे

सांस लेती,

फड़फड़ाती खिड़कियां

दिल में कोई खड़का सा खड़काती खिड़कियां

दीवारों के सीने को चीर

मुझे;

मैं, मैं हूं

ये बताती खिड़कियां

दीवारों के कानों पे

पहरेदारी करती ये खिड़कियां

दीवारें तो ख़ामोश हैं

कि दीवारों के कान होते हैं

मगर बोलती हैं खिड़कियां।


सौम्या वफ़ा।©


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