रविवार, 28 जून 2020

दो बीज

इक रोज़ जब मैं आंगन में खड़ी
सूप में इश्क़ पछोर रही थी
तब अनजाने में ही
तुम्हारे इश्क़ के दो बीज
मेरे आंगन के कोने में जाकर छिप गए
कई रोज़ बाद देखा
वहां नन्हीं नन्हीं हरी कोपलें फूटी थीं
मैंने सोचा क्यूं ना इन्हें
बीच आंगन में
तुलसी की छांह में रोपूं
पर जैसे ही मैंने उन्हें
इस एहसास से हाथ लगाया
वो दोनों सहम कर सकुचा गए
वो तुलसी के साथ नहीं
बल्कि एक कोने में अपना घर बसाना चाहते थे
नलके के पानी से नहीं
बारिश के इंतज़ार से ख़ुद को
सींचना चाहते थे
फ़िर ख्याल आया
ये हमारे इश्क़ की फूटी कोपलें ही तो हैं
इन्हें बारिश का ही इंतजार रहेगा
इन्हें तुलसी की छांह नहीं
अपने सर पर
छोटे से आसमान का ही इंतजार रहेगा।



सौम्या वफ़ा। (7/1/2019).

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