कैसे होता है यूं
कि जब सपनों के पास आते जाते हैं
तो वो जो दूर रहने पे
खिले थे प्रेरणाओं के फूल
वो कैसे मुरझा जाते हैं
हकीकत की सड़ांध और बू से
तब कितना ज़्यादा लगता है
कि काश
हर फूल के पास कांटों का सुरक्षा कवच होता
बिना किसी बाग़बां या माली के
कड़ी धूप में बिना पानी के
ज़िंदा रखता
फ़िर अचानक नज़र के सामने
जानी पहचानी मगर बिसर चुकी सूरत
खिल उठती है
ये बिसर चुकी सूरत बारह साल की
लिली जैसी नाज़ुक नर्म और मासूम सी लड़की है
फ़िर सोलह की टियूलिप
फ़िर अटराह की जूही
फ़िर बीस की ग़ुलाब
ये सारे फूल पत्तों के एल्बम में बदल जाते हैं
जहां यादें तो अब भी बहुत सी ताज़ा हैं
मगर वो सब अब सिर्फ़ यादें ही हैं
क्यूंकि उनमें से कोई भी अब ज़िंदा नहीं
और ये पन्नों के पत्ते पलटते पलटते
जा रूकते हैं छब्बीस की कैक्टस पर
जिसके जिस्म का रोम रोम
कांटों की तरह तनकर खड़ा हो जाता है
गर्व और मुक्ति से
आंखों में अब नमी नहीं आती
वो खूंखार और ठोस हो चुकी हैं
तो फ़िर नमी कहां गई ?
वो सारी कांटों को पालने में चली गई
और बची खुची नमी
का स्टॉक एक कोने में पड़ा है
क्या पता कब काम आ जाए
आखिर कांटों को सींचने में भी
नमी की ही ज़रूरत होती है
और इस नमी और कांटों के
मधुर संबंध के दरम्यान
रेत का बवंडर
धीरे धीरे अपनी जगह बनाता रहता है
जिसके इर्द गिर्द केवल वही पनपते हैं
जिन्हें संगीत के बजाए
डरावनी सांय सांय पसंद है
ऐसे खौफ़नाक से मंज़र में
जहां ज़िन्दगी का नामो निशान नहीं होता
वहां ज़िन्दगी की निशानी लेकर
गर्व से खड़ी होती हैं
मुक्त कैक्टस की ख़ामोश बाहें
नमी और चुभन का संतुलन बनाए हुए
जिसे बरसात का कोई इंतज़ार नहीं
जो बस एक बूंद में ही तर हो जाती है
और जी जाती है
मैं अब यही कैक्टस हो चुकी हूं
और अगर तुम अब
फूलों से नाज़ुक बनकर आओगे
तो छिल जाओगे।
सौम्या वफ़ा।(29/1/2018).
कि जब सपनों के पास आते जाते हैं
तो वो जो दूर रहने पे
खिले थे प्रेरणाओं के फूल
वो कैसे मुरझा जाते हैं
हकीकत की सड़ांध और बू से
तब कितना ज़्यादा लगता है
कि काश
हर फूल के पास कांटों का सुरक्षा कवच होता
बिना किसी बाग़बां या माली के
कड़ी धूप में बिना पानी के
ज़िंदा रखता
फ़िर अचानक नज़र के सामने
जानी पहचानी मगर बिसर चुकी सूरत
खिल उठती है
ये बिसर चुकी सूरत बारह साल की
लिली जैसी नाज़ुक नर्म और मासूम सी लड़की है
फ़िर सोलह की टियूलिप
फ़िर अटराह की जूही
फ़िर बीस की ग़ुलाब
ये सारे फूल पत्तों के एल्बम में बदल जाते हैं
जहां यादें तो अब भी बहुत सी ताज़ा हैं
मगर वो सब अब सिर्फ़ यादें ही हैं
क्यूंकि उनमें से कोई भी अब ज़िंदा नहीं
और ये पन्नों के पत्ते पलटते पलटते
जा रूकते हैं छब्बीस की कैक्टस पर
जिसके जिस्म का रोम रोम
कांटों की तरह तनकर खड़ा हो जाता है
गर्व और मुक्ति से
आंखों में अब नमी नहीं आती
वो खूंखार और ठोस हो चुकी हैं
तो फ़िर नमी कहां गई ?
वो सारी कांटों को पालने में चली गई
और बची खुची नमी
का स्टॉक एक कोने में पड़ा है
क्या पता कब काम आ जाए
आखिर कांटों को सींचने में भी
नमी की ही ज़रूरत होती है
और इस नमी और कांटों के
मधुर संबंध के दरम्यान
रेत का बवंडर
धीरे धीरे अपनी जगह बनाता रहता है
जिसके इर्द गिर्द केवल वही पनपते हैं
जिन्हें संगीत के बजाए
डरावनी सांय सांय पसंद है
ऐसे खौफ़नाक से मंज़र में
जहां ज़िन्दगी का नामो निशान नहीं होता
वहां ज़िन्दगी की निशानी लेकर
गर्व से खड़ी होती हैं
मुक्त कैक्टस की ख़ामोश बाहें
नमी और चुभन का संतुलन बनाए हुए
जिसे बरसात का कोई इंतज़ार नहीं
जो बस एक बूंद में ही तर हो जाती है
और जी जाती है
मैं अब यही कैक्टस हो चुकी हूं
और अगर तुम अब
फूलों से नाज़ुक बनकर आओगे
तो छिल जाओगे।
सौम्या वफ़ा।(29/1/2018).
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