रोशनी के तले
स्याह सी खिंची लकीर है कोई
कांच के उस दोहरे बदन के पार
अपना ही हमसाया है कहीं
बोतल में बंद जिन्न सी है खु़दी
मुझे ढूंढ के लानी है
खु़दी में वो फूंक तिलस्मी
तकदीरों से परे
सितारों से बढ़ानी है पहचानें और भी
एक पर्दा है धूप का
इक दीवार है पानी की
जिसके उस पार अब भी बाकी है ख़्वाहिश
ख़ुद को आज़माने की।
रहें या ना रहें निशां
एक बार ज़िन्दगी को
छू के गुज़र जाने की।
सौम्या वफ़ा।©
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