बुधवार, 11 नवंबर 2020

मेरी नींद

 मेरी नींद का नहीं है कोई अता पता

ना इश्क़ का मुआमला है

ना ही कोई ख़ता वता

बस जाने कहां निकल जाती है

रोज़ रात को बांधे बस्ता

कहती है रात में ही तो

मिलती है,

 दो गिलास ठंडी सांसें

 और साथ में मिलता है सुकून

 चांद की टपरी पे;

 इत्मीनान की तश्तरियों में

 चार आने सस्ता,

 दिन को दुनिया में क्या ही दौड़ लगाएं

 जमहैयां छिपाएं

 ऊंघ लगाएं झपकियों में:

 दुनिया ठहरी ताश की बाज़ी

 और हम जोकर पत्ता

 नींद सोती है चांद तले

 और हम नींद का ताकते हैं रस्ता,

 नींद ख़ुद ही उतर आती है

 देख हमारी हालत खस्ता

 हां मगर नींद के उस हसीं चेहरे से,

 मुलाक़ात नहीं हो पाती

 हम आंखें खोलते हैं

 वो सवेरे सवेरे ही निकल जाती है

 कौन है वो नींद 

 और कैसा है उसका हसीं चेहरा

 एक यही बाकी है;

 रिश्ता सच्चा अलबत्ता

 कहने को मेरी ही पलकों में आती है

 पर कोई डाक नहीं लाती है

 उसने दरवाज़े से हटा दिया है

 किसी भी नाम का पट्टा

 मेरी नींद का नहीं है कोई अता पता

 मेरी नींद का नहीं है कोई अता पता।


सौम्या वफ़ा।©

 

 

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