आजकल,
बासी पड़े कोरे पन्नों पर
सीने से घुमड़ता हुआ
रंगों का बादल फट जाता है
और रंग देता है सतरंगी हर पन्ना
एक एक रंग की रिस्ती बूंद
सीने में कोई बीज सा बोती है
जैसे बरसों से वहीं अटकी पड़ी थी
फूटने को तैयार
मगर जो अब आज जाके फूटी है
जिससे निकल रही हैं
हरी गहरी समाती जड़ें
और पीले अंकुर
ख़ाली पन्ने की
ज़मीं पर एक नया बाग़ बसाने को
जो कभी अपनी ही नासमझी में
कोरा रह गया था
पर अब जाके ख़िल उठा है
ये कह के कि जियो और जीने दो।
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