गुरुवार, 20 अगस्त 2020

बदलते मौसम

 हमेशा शिकायतें ही रही हैं बदलते मौसमों से 

या  दो घड़ी  को ठहर कर कभी हाल लिया है 

 मौसमों की आरज़ू का 

बिना बासी  सी ख़बरों पे 

नजऱें  डाले हुए 

जिया है साथ कभी मौसमों की चाहत के 

अपनी हसरतों का साथ 

मौसम के हाथों में डाले हुए 

आयी है क्या तुम्हारे भी आँगन में कभी बरसात 

बिना छतरी की परवाह किये 

बेपरवाह फुहारें बरसाते हुए

खींची है कांच पे उँगलियों से कोई तस्वीर 

बिना वो नाम बताये हुए 

साथ में जिसके भरी हों 

चाय की चुस्कियां 

आँखों के कोनों से शर्माते हुए 

कभी ठण्ड में बितायी है रात गरम सी 

बिना ऊनी दुशालों के

काटी है कोई रात ठण्ड से अकड़ती गलियों में 

बिना सिगरेट पिए ही 

धुएं के छल्ले उड़ाते हुए 

तपती गर्मी का इंतज़ार किया है कभी 

उन हाथों के लिए,

जो बनाते हैं ठन्डे 

 खस - ग़ुलाब  के शरबत 

वो आते हैं तो साथ लाते हैं 

अपनी भीनी भीनी खुशबु 

बिना खुद को 

सेंट की बोतलों  में छुपाये हुए  

जिनके ज़रा नज़र हटाने पे 

साँसों में उतार लेते हैं 

उन्हीं की खुशबु 

उनके दुपट्टों या रूमालों से

और वो देखें तो कह दें 

कुछ नहीं,

बस बात कर रहे थे ख़्यालों  से ! 

बहारों में देखें हैं सिर्फ़ 

घर से बाहर ही गुलिस्तां 

या देखे हैं वो गजरे 

जो मुरझा गए हैं रखे रखे फ्रिज में 

किसी के भूल जाने से 

और बढ़ाया हो अपना हाथ

 किसी अपने को 

उसकी अपनी ही भूली खुशबु 

तरोताज़ा लौटाने में

और आयी हों जब तेज़ आंधियां 

तो समेट  लिया हो किसी को अपनी बाहों में 

 नशेमन की नींव बनाते हुए  

हमेशा शिकायतें ही रही हैं बदलते मौसमों से 

या  दो घड़ी  को ठहर कर कभी हाल लिया है 

 मौसमों की आरज़ू का 

बिना बासी  सी ख़बरों पे 

नजऱें  डाले हुए?!!.... 


सौम्या वफ़ा। © 


  

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