हमेशा शिकायतें ही रही हैं बदलते मौसमों से
या दो घड़ी को ठहर कर कभी हाल लिया है
मौसमों की आरज़ू का
बिना बासी सी ख़बरों पे
नजऱें डाले हुए
जिया है साथ कभी मौसमों की चाहत के
अपनी हसरतों का साथ
मौसम के हाथों में डाले हुए
आयी है क्या तुम्हारे भी आँगन में कभी बरसात
बिना छतरी की परवाह किये
बेपरवाह फुहारें बरसाते हुए
खींची है कांच पे उँगलियों से कोई तस्वीर
बिना वो नाम बताये हुए
साथ में जिसके भरी हों
चाय की चुस्कियां
आँखों के कोनों से शर्माते हुए
कभी ठण्ड में बितायी है रात गरम सी
बिना ऊनी दुशालों के
काटी है कोई रात ठण्ड से अकड़ती गलियों में
बिना सिगरेट पिए ही
धुएं के छल्ले उड़ाते हुए
तपती गर्मी का इंतज़ार किया है कभी
उन हाथों के लिए,
जो बनाते हैं ठन्डे
खस - ग़ुलाब के शरबत
वो आते हैं तो साथ लाते हैं
अपनी भीनी भीनी खुशबु
बिना खुद को
सेंट की बोतलों में छुपाये हुए
जिनके ज़रा नज़र हटाने पे
साँसों में उतार लेते हैं
उन्हीं की खुशबु
उनके दुपट्टों या रूमालों से
और वो देखें तो कह दें
कुछ नहीं,
बस बात कर रहे थे ख़्यालों से !
बहारों में देखें हैं सिर्फ़
घर से बाहर ही गुलिस्तां
या देखे हैं वो गजरे
जो मुरझा गए हैं रखे रखे फ्रिज में
किसी के भूल जाने से
और बढ़ाया हो अपना हाथ
किसी अपने को
उसकी अपनी ही भूली खुशबु
तरोताज़ा लौटाने में
और आयी हों जब तेज़ आंधियां
तो समेट लिया हो किसी को अपनी बाहों में
नशेमन की नींव बनाते हुए
हमेशा शिकायतें ही रही हैं बदलते मौसमों से
या दो घड़ी को ठहर कर कभी हाल लिया है
मौसमों की आरज़ू का
बिना बासी सी ख़बरों पे
नजऱें डाले हुए?!!....
सौम्या वफ़ा। ©
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