टटोलता है रोज़ मन
बादलों के बीच अपनी जगह
कुछ लाली, कुछ धूप, कुछ ठंडी छैयां
कुछ फा़हे जैसे उड़ते ख़्वाब
कुछ रेश़म ख़्याल
कुछ पर्दा डाले गर्मी पर
गरज बिगड़ कर बरस जाना
कुछ ढलती शाम में
छनती रोशनी के तारों पे
अपनी उड़ानों को
पंखों से सी लेना
रात ढले चांद जले को
हौले हौले से सहला के
मलहम लगाना सीख़ लेना
एक नई सुबह को फ़िर पर्दा सरका के
पौ फटने के इंतज़ार में
पड़े पड़े एक झपकी और लगा लेना
पहली आती किरणों को रस्ता दे
अलसाई नींद भगा लेना
टंगे टंगे यूं ही आसमां पे
कुछ अपने उखड़े पाओं
एक बार फ़िर से जमा लेना।
@सौम्या वफ़ा।०©
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें