रविवार, 9 फ़रवरी 2020

ये रिश्ते तमाम



वक़्त की शाख़ पे लटके लटके
जाने कितने रिश्ते तमाम हो जाते हैं
इक अदद बाग़बां की आस में
चमन के गुल सारे
बदनाम हो जाते हैं

धूप हो तो छांव को
छांह हो तो धूप को
बेक़रार हो जाते हैं

फिरते हैं बदहवास
कभी बनके काफ़िर
कभी पैग़म्बर पीर हो जाते हैं

मिलती नहीं हैं जो महबूब की बाहें
तो बाहों में ख़ुद की बाहें डाले
सो जाते हैं

इक हां के इंतज़ार में
उम्रे बेहिसाब को ना कह जाते हैं

कहीं तो होगी
इस पार या उस पार मुलाक़ात
बस इसी ख़्याल में
कई ख़्वाब गुज़र जाते हैं

सिसकते नहीं हैं कभी तो आह भर भी
तो कभी इक बूंद से तर जाने को
 साग़र सूख जाते हैं

 कभी दर्द होता है ख़ामोश इतना
 कि आह भी भरें
 तो दर्द से भर जाते हैं

 कभी जो आए सैलाब
 तो फ़िर दरिया बहा ले जाते हैं

 जहां जीते रहते हैं बार बार
 वहीं हर बार मदफ़न हो जाते हैं

 सिल के आते हैं जो लाल लिबास
 वही पैराहन कफ़न हो जाते हैं

 वक़्त की शाख़ पर लटके लटके
 जाने कितने रिश्ते तमाम हो जाते हैं।





@सौम्या वफ़ा।©®




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