वक़्त की शाख़ पे लटके लटके
जाने कितने रिश्ते तमाम हो जाते हैं
इक अदद बाग़बां की आस में
चमन के गुल सारे
बदनाम हो जाते हैं
धूप हो तो छांव को
छांह हो तो धूप को
बेक़रार हो जाते हैं
फिरते हैं बदहवास
कभी बनके काफ़िर
कभी पैग़म्बर पीर हो जाते हैं
मिलती नहीं हैं जो महबूब की बाहें
तो बाहों में ख़ुद की बाहें डाले
सो जाते हैं
इक हां के इंतज़ार में
उम्रे बेहिसाब को ना कह जाते हैं
कहीं तो होगी
इस पार या उस पार मुलाक़ात
बस इसी ख़्याल में
कई ख़्वाब गुज़र जाते हैं
सिसकते नहीं हैं कभी तो आह भर भी
तो कभी इक बूंद से तर जाने को
साग़र सूख जाते हैं
कभी दर्द होता है ख़ामोश इतना
कि आह भी भरें
तो दर्द से भर जाते हैं
कभी जो आए सैलाब
तो फ़िर दरिया बहा ले जाते हैं
जहां जीते रहते हैं बार बार
वहीं हर बार मदफ़न हो जाते हैं
सिल के आते हैं जो लाल लिबास
वही पैराहन कफ़न हो जाते हैं
वक़्त की शाख़ पर लटके लटके
जाने कितने रिश्ते तमाम हो जाते हैं।
@सौम्या वफ़ा।©®
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