रविवार, 26 अप्रैल 2020

क़ातिल

रहनुमा नहीं ये जान
क़ातिल की शुक्रगुजा़र है
सीने में हैं ज़ख्म गहरे
मगर लफ़्ज़ों में बहार है
आंखों में दीदार नहीं
मगर अश़्क बेशुमार हैं
होंठ कांपते नहीं अब शर्म से
ना गालों पे
मीठी सुर्ख़ियों के इज़हार हैं
हां मगर बंद पड़ी ज़ुबां पर अब
निखा़र ही निखा़र है
हाथों में अब किसी के हाथों की
गर्मी का इंतज़ार नहीं
माथे पे किसी के बोसों
या सीने की धड़कनों का ऐतबार नहीं
हां मगर मुंदी पीठ अब
ज़ुल्मों का इश़्तेहार है
जान फ़िर भी हथेली पे रख
अभी और जीने को तैयार है
रहनुमा नहीं ये जान
क़ातिल की शुक्रगुजा़र है।


सौम्या वफ़ा।©

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