कुछ कुछ मिल सा गया है
जो खोया था पता,
लापता ज़िन्दगी का
फ़िर मिल रही है कोई
दहलीज़
जिसपे खुलता है दरवाज़ा,
अपने आँगन का
मिल रहा है कोई, कोना
अपनी खिड़की,
अपने झरोखों का
फ़िर मिल रहा है
कोई बहाना
बेघर को एक,
घर होने का
कच्ची टूटती;
आसमां ताकती, नींदों का
ज़मीं पे सुकूँ का,
अपना एक बिछौना होने का
आ गया है साँसों का तार,
संदेसा लेके
ख़ुदी के:
ज़िंदा होने का
दर बा दर के
अंदर ही
अपना समंदर होने का
बेमानी ख़्वाहिशों से ख़ाली,
एक नयी फ़ज्र होने का
दीन दुनिया के दस्तूरों
के दरबार से दूर
एक देहरी पे;
अपना भी सर होने का,
हमपे ज़िन्दगी के असर होने का
कुछ कुछ मिल सा गया है
जो खोया था पता
लापता ज़िन्दगी का।
कुछ कुछ मिल सा गया है
जो खोया था पता
लापता ज़िन्दगी का।
- सौम्या वफ़ा। ©
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें