जितना शहर मुझे बुलाता है
उतना गांव मुझमें बस जाता है
ये शहर मुझे अपनी गलियों में
सूने गांव दिखाता है
उधर नदियों के बहते हैं आंसू
इधर समन्दर खारा हो जाता है
जितना भी मूंदूं मैं आंखें
उतना सुरमे सा चारचांद लगा टिमटिमाता है
मगर आंखों में ये अधूरा चांद बन
शहर जाने क्यूं किरकिराता है
सजा धजा लो चाहे जितना
मगर चेहरे को मेरे आईना दिखाता है
मैं क्या क्या हूं
क्या नहीं हूं
मुझको बताता है
भागता दौड़ता शहर खूंटियों में पसीने से तर
गांव टांग जाता है
गांव की खुशबू पर सेंट चढ़ाए
हर सुबह वही पसीना पहन निकल जाता है
शहर बड़ा बातूनी है
दिन रात कहता रहता सिर्फ़ अपनी
मेरे अंदर का गांव उसकी हर बात पे बस
मौन रह जाता है
पगडंडियों को झुठलाते पांव को
अपनी सड़कों की भूलभूलैया में नचाता है
धुंध उड़ाते जहाज़ों के भड़कीले डैनों में
पंछी शर्मीले छुपाता है
कितना भी कह लो बुरा भला
पुराने आशिक़ सा मगर शहर
सर पे मंडराता है
जिन भोले सपनों को सजाया था गांव ने
शहर उन सपनों को पाव रोटी संग बीच में दबा
चटनी संग
बड़े चाव से हर सुबह खाता है
ज़िद से अपनी लूट देस को
हवा में परदेस घुमाता है
सोजा सोजा मुसाफ़िर मेरे
इक दिन घर जाएगा
हर रात यही कह शहर
ख़ामोशी को फुसलाकर रात भर
शोर में सुलाता है
हर रात कहीं किसी थपकी में
कोई गांव सिसक जाता है
सुबह आंखों को फ़िर नया चश्मा बेचने को
रंग बिरंगे सपने दिखाता है
जितना शहर मुझे बुलाता है
उतना गांव मुझमें बस जाता है।
सौम्या वफ़ा।©
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