रविवार, 12 जुलाई 2020

बचत

बचपन के बक्से से निकालीं
कुछ पेंसिलें पुरानी गुम हुई कहानियों की
जवानी की तेज़ धार से छीली
पेंसिलों से उतारीं
लहराती कविताओं की कतरनें
सजा लीं जिनसे बढ़ती उम्र की ओरिगैमी
बढ़ बढ़ के बढ़ चली
टूटी फूटी बोलियों की अपनी ही भाषाएं
संग बढ़ के बढ़ चलीं
छोटी से बड़ी हो चुकी आशाएं
पेंसिल से पेन
पेन से फाउंटेन पेन हुईं
महंगी से महंगी इंक हुईं
वो सारे चटपटी चाट से चुटकुले
वो सारी दो  रुपए में चार
जितनी सस्ती कविताएं
वो सारी हल्की फुल्की सी कहानियां
जिनके सहारे लिखे थे
टेढ़े मेढे आड़े तिरछे अक्षरों में
पहले पहले जज़्बात
वही सारे अब हुए
सोच समझ के लिखे
कैलक्युलेटेड इज़हार
डायरियों के किस्से बन गए दास्तां
और कागजों के पीले धब्बे
हुईं कविताएं बेकार
एक बड़ी गाड़ी हुई
एक घर, चारदीवारी हुई
कंप्यूटर, लैपटॉप
मोबाइल की
अपनी अपनी मेजें
अपनी अपनी आलमारी हुईं
जगह नहीं थी बची
तो टांड़ पे उठा के रख दिया
वो बचपन से भरा बक्सा कहानियों का
डालकर उसपे दादी की पुरानी लोई का पर्दा
कविताओं की कतरनें
पेनसिलों के साथ
अलविदा सी हुईं
कागजों के धब्बे पीले से भूरे हुए
जिनको अब भी सहेजे थी
कबाड़ से झांकती पहली डायरी
जिसके पन्ने अब भी कर रहे थे
हवा से बातें
जिसका रोशनदान थी
बाबा की फट चुकी बंडी
उसे तलाश थी नई रोशनी की
रोशनदान की नहीं
हवाई जहाज की खिड़कियों की

जिसके बीच से अब भी झांक रहे थे
दो सबसे पुराने साथी

जीवन की सबसे पहली समझ

 सबसे पहली आज़ादी

झांक रही थी पहली नांव
 झांक रहा था उड़ने का सपना लिए
 छोटा सा हवाई जहाज़
 ये सब समेटे डायरी
 अपनी जगह दोबारा बनाने से पहले
 बन गई कविता
 गुम हुई कहानियों की
 अब नए नए कंप्यूटर पर थी
 आज की ताज़ा खबर
 डायरी के पन्नों की जगह
 पब्लिक पोस्ट ने ले ली थी
 जहां कभी जिन्हें कोई नहीं पढ़ता था
 वो सब अब ज़ोर शोर से पढ़े जाते हैं
 और ख़ामोश जो कुछ भी नहीं लिखा जाता
 वो सब बन जाता है
 बिना किसी दस्तावेज़ के
 एक बहती जाती कविता
 एक अंतहीन कहानी
 बस जाते जाते आज बचा ली थी
 बचपन के बक्से से निकली
 जीवन भर की कमाई
 और बचत सारी जमा कर दी
 बुढ़ापे की तिज़ोरी में,
 ज़िंदा बची कहानियां
 मुस्कुराती कविताओं की।



सौम्या वफ़ा।©









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