सोमवार, 14 सितंबर 2020

दिन भर जहां रात को घर चाहिए

 दिन भर जहां रात को घर चाहिए

इस छोटे से जी को जाने क्या क्या चाहिए

मुठ्ठी में सिमटा है समन्दर सारा

मगर लहरों से करवटें नहीं

मीठे सुखन चाहिए

मानो अनहोनी से कोई होनी चाहिए

थक गए हैं क़दम

मगर ख़तम ना हो 

ऐसा कोई सफ़र चाहिए

इस छोटे से जी को जाने क्या क्या चाहिए

डाले है डेरा दर बा दर

कभी ख़ामोश, कभी बवंडर

बेघर मुसाफ़िर को

राह भर में दर चाहिए

दिन भर जहां

रात को घर चाहिए;

जहां भर का मुझ पर 

तारी रहा है असर

अब आया है वो मक़ाम

जहां मुझे अब 

पता एक बेखबर चाहिए

जहां भर से जुदा

उम्र एक बेअसर चाहिए

बुलंद हो मेरी राह की वो इब्तेदा

जहां दिल को सुकूं ओ ज़फ़र चाहिए

दिन भर जहां रात को घर चाहिए

इस छोटे से जी को जाने क्या क्या चाहिए।

दिन भर जहां रात को घर चाहिए।


सौम्या वफ़ा।©


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें