दिन भर जहां रात को घर चाहिए
इस छोटे से जी को जाने क्या क्या चाहिए
मुठ्ठी में सिमटा है समन्दर सारा
मगर लहरों से करवटें नहीं
मीठे सुखन चाहिए
मानो अनहोनी से कोई होनी चाहिए
थक गए हैं क़दम
मगर ख़तम ना हो
ऐसा कोई सफ़र चाहिए
इस छोटे से जी को जाने क्या क्या चाहिए
डाले है डेरा दर बा दर
कभी ख़ामोश, कभी बवंडर
बेघर मुसाफ़िर को
राह भर में दर चाहिए
दिन भर जहां
रात को घर चाहिए;
जहां भर का मुझ पर
तारी रहा है असर
अब आया है वो मक़ाम
जहां मुझे अब
पता एक बेखबर चाहिए
जहां भर से जुदा
उम्र एक बेअसर चाहिए
बुलंद हो मेरी राह की वो इब्तेदा
जहां दिल को सुकूं ओ ज़फ़र चाहिए
दिन भर जहां रात को घर चाहिए
इस छोटे से जी को जाने क्या क्या चाहिए।
दिन भर जहां रात को घर चाहिए।
सौम्या वफ़ा।©
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