कभी कभी कितना लगता है
कि ज़ेहन में कहीं
कुछ अटका सा है
कितना भी ढूंढो
अक्सर मिलता नहीं
ख़ुद से छिपा बैठा
तहों का फांस है
और बैठ जाओ ज्यों ही
ख़ाली चुपचाप
ख़ुद ही निकल कर आ जाता है बाहर
मानो आंख मिचौली में
चोर के पकड़ जाने पर
ख़ुशी मनाता कोई बच्चा तैयार है
और बस झटके से कब आ जाता है
आंखों के सामने
मन में छिपा बैठा कंकड़
साथ में कलकल कर बहती लहरों के
कि मालूम ही नहीं चलता
कि वो जो कब से अटका सा था
वो कब का धुल कर बह गया है।
सौम्या वफ़ा।©
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