सोमवार, 28 सितंबर 2020

अरमां

 उड़ते रहते हैं अरमां समन्दर पे

लहरों के पंख ले के

मंडराते हैं सर पे छत बने

जैसे चील कौवों के साए

मोह और माया के बीच

 बांधे झूला झूले है अरमां

मैं समझूं उसको नादां

वो समझे है मुझेको बच्चा

ना इस ठौर पैर टिकाए

ना उस ठौर पैर टिकाए

बस जिस पल्ले बैठे

उधर ही वज़न बढ़ाए

अरमानों के सर दोश चढ़ा

ये मूरख, खल, कामी हैं

जिनके नहीं हैं कोई अरमां

उनके सर भी ये आफ़त

ज़िन्दगी बन चढ़ जानी है

अरमानों के अरमां नहीं

ये भी तो एक अरमां ही है

अरमानों के हाथों हम कठपुतली 

वो खेल खिलौने खिलाए

 हम खाएं गच्चा

 अरमां ही हैं सुनहरे हल्के कहकहे

 अरमां ही हैं बोझ की गठरी

 कभी ऊंची उड़ान भरें अरमां

 कभी बन जाएं कंधों पे बोझा संसारी

 मन भागे इंसा का

 रोता हंसता अर्मानों के पीछे

 कभी पंख सिले चमकीले

 कभी पांव धोए पखारे

 जो चाहे कर ले बेचारा

 अरमानों के कानों में

 एक जूं ना रेंगे

 लंबे चौड़े पिलैन बना

 धक्कामुक्की में इंसा ख़ुद को झेले

चुपचाप कभी कभी शोर मचाएं

खींचे आगे कभी चक्कर घुमाएं

 ले ले ज़िन्दगी जब मज़ा

  सब पे पानी फेरे

 अरमानों का फ़िर भी क्या ही बिगड़े

 बस्ता उठाए चलदे सवेरे सवेरे

 ये ढीठ ऐसा है अपनी दर से

 ना बित्ता हिले ना पौने

 मन के अरमां सूरमे के शोरबा

 इनके आगे हम तुम हैं पिद्दी

 तेरी मेरी भूल के आगे

 अरमानों की भूल है बस इत्ती

 सब झूठ मूठ से ठगे हैं जग में

 और ये निकले भोले भंडारी

 सब छूटे थे पीछे जब

 तब संग ये हमारे हो लिए

 कितना भी टूटें बिखरें अरमां

 ख़ुद को हर बार ये जोड़ ले

 अरमां हैं ऐसे साहबज़ादे

  नाक है बड़ी ऊंची

 और कान हैं बड़े छोटे

 मन में धूनी रमाए

 जोगी सा अलख निरंजन बोले

 सिर्फ़ अपनी सुनें ये अरमां

 और किसी की ना बूझें 

उड़ते रहते हैं अरमां समदर पे

लहरों के पंख ले के।

 सौम्या वफ़ा।©

बुधवार, 23 सितंबर 2020

मुसाफ़िर

 मुसाफ़िर हो या राहें दोनों को बस 

गुज़रते चले जाने की

ख़्वाहिश नौशाद है

कि भटकते रहने में पुर सूकूं ए एहसास है

मंज़िल से ख़ूबसूरत हैं मुसाफ़िर को राहें

मुसाफ़िर से ना पूछ कि

ठहर जाने का क्या इंतज़ाम है

ख़्वाबों में ही महज़ ठहरते हैं राही

मंज़िल राहों का आख़िरी इत्मेनान है

ठहरा पानी क्या ही जाने

बहते चले जाना कैसी प्यास है

बस गुजरते चले जाने की ख़्वाहिश नौशाद है।

सौम्या वफ़ा।©





शहर

 जितना शहर मुझे बुलाता है

उतना गांव मुझमें बस जाता है

ये शहर मुझे अपनी गलियों में

सूने गांव दिखाता है

उधर नदियों के बहते हैं आंसू

इधर समन्दर खारा हो जाता है

जितना भी मूंदूं मैं आंखें

उतना सुरमे सा चारचांद लगा टिमटिमाता है

मगर आंखों में ये अधूरा चांद बन

शहर जाने क्यूं किरकिराता है

सजा धजा लो चाहे जितना

मगर चेहरे को मेरे आईना दिखाता है

मैं क्या क्या हूं

क्या नहीं हूं

मुझको बताता है 

भागता दौड़ता शहर खूंटियों में पसीने से तर

गांव टांग जाता है

गांव की खुशबू पर सेंट चढ़ाए

 हर सुबह वही पसीना पहन निकल जाता है

 शहर बड़ा बातूनी है

 दिन रात कहता रहता सिर्फ़ अपनी

 मेरे अंदर का गांव उसकी हर बात पे बस

 मौन रह जाता है

 पगडंडियों को झुठलाते पांव को

 अपनी सड़कों की भूलभूलैया में नचाता है

 धुंध उड़ाते जहाज़ों के भड़कीले डैनों में

 पंछी शर्मीले छुपाता है

 कितना भी कह लो बुरा भला

 पुराने आशिक़ सा मगर शहर

 सर पे मंडराता है

 जिन भोले सपनों को सजाया था गांव ने

 शहर उन सपनों को पाव रोटी संग बीच में दबा

 चटनी संग

 बड़े चाव से हर सुबह खाता है

 ज़िद से अपनी लूट देस को

 हवा में परदेस घुमाता है

 सोजा सोजा मुसाफ़िर मेरे

 इक दिन घर जाएगा

 हर रात यही कह शहर

 ख़ामोशी को फुसलाकर रात भर

 शोर में सुलाता है

 हर रात कहीं किसी थपकी में

 कोई गांव सिसक जाता है

 सुबह आंखों को फ़िर नया चश्मा बेचने को

 रंग बिरंगे सपने दिखाता है

 जितना शहर मुझे बुलाता है

 उतना गांव मुझमें बस जाता है।


सौम्या वफ़ा।©

 

सोमवार, 21 सितंबर 2020

खु़दी

 रोशनी के तले

स्याह सी खिंची लकीर है कोई

कांच के उस दोहरे बदन के पार

अपना ही हमसाया है कहीं

बोतल में बंद जिन्न सी है खु़दी 

मुझे ढूंढ के लानी है 

खु़दी में वो फूंक तिलस्मी

तकदीरों से परे

सितारों से बढ़ानी है पहचानें और भी

एक पर्दा है धूप का

इक दीवार है पानी की

जिसके उस पार अब भी बाकी है ख़्वाहिश

ख़ुद को आज़माने की।

रहें या ना रहें निशां

एक बार ज़िन्दगी को 

छू के गुज़र जाने की।


सौम्या वफ़ा।©

रोशनी

 जग में खोये अपने 

अंधियारे साये को 

अब मैं रोशनी नयी दिखाऊं 

बीज उजियारे का आज मैं 

माटी की कोख में उगाऊं  

उपजे हरियाली काया 

उपजे मन हरियाला 

फूटे कोमल किरणें नयी 

बरसे सीने से झर झर आंसू 

 बन अमृत दुधियारा 

आज हरियाले पे बन मैं 

फूल बसंती खिल जाऊं  

जग में खोये अपने अंधियारे साये को 

अब मैं नयी रोशनी दिखाऊं 

आसमान तक फैलें  मेरी हथेलियां  

पावों में गहरी जड़ें जमाऊँ

हाथों में ले समय की नोंक 

 सूरज का मैं कातू चरखा  

लाली पर गुलाबी बन छाऊँ  

मैं नाचूं, धरती झूमें 

संग सारंगी गगन के 

ताल दे बदरिया 

मैं ही बरसूं जी भर भर 

मैं ही तर तर जाऊं

मैं ही जलूं अपनी भसम में 

मैं ही ख़ुद में रम रम जाऊं 

इस पार की छोड़ के बातें 

अपने कंधे चढ़ाये 

अपनी कश्ती 

लहरों में लहराऊँ  

मैं तैरूं, मैं उड़ूँ

मैं उस पार उतर जाऊं 

धूल धूल मटियारे में 

जुगनू बन जगमगाऊं 

मैं ही बरसूं जी भर भर 

मैं ही तर तर जाऊं  

जग में खोये अपने अंधियारे साये को 

अब मैं नयी रोशनी दिखाऊं। 


सौम्या वफ़ा।©


सोमवार, 14 सितंबर 2020

कभी कभी

 कभी कभी कितना लगता है

कि ज़ेहन में कहीं

कुछ अटका सा है

कितना भी ढूंढो 

अक्सर मिलता नहीं

ख़ुद से छिपा बैठा

तहों का फांस है

और बैठ जाओ ज्यों ही

ख़ाली चुपचाप

ख़ुद ही निकल कर आ जाता है बाहर

मानो आंख मिचौली में

चोर के पकड़ जाने पर

ख़ुशी मनाता कोई बच्चा तैयार है

और बस झटके से कब आ जाता है 

आंखों के सामने

मन में छिपा बैठा कंकड़

साथ में कलकल कर बहती लहरों के

कि मालूम ही नहीं चलता

कि वो जो कब से अटका सा था

वो कब का धुल कर बह गया है।


सौम्या वफ़ा।©

दिन भर जहां रात को घर चाहिए

 दिन भर जहां रात को घर चाहिए

इस छोटे से जी को जाने क्या क्या चाहिए

मुठ्ठी में सिमटा है समन्दर सारा

मगर लहरों से करवटें नहीं

मीठे सुखन चाहिए

मानो अनहोनी से कोई होनी चाहिए

थक गए हैं क़दम

मगर ख़तम ना हो 

ऐसा कोई सफ़र चाहिए

इस छोटे से जी को जाने क्या क्या चाहिए

डाले है डेरा दर बा दर

कभी ख़ामोश, कभी बवंडर

बेघर मुसाफ़िर को

राह भर में दर चाहिए

दिन भर जहां

रात को घर चाहिए;

जहां भर का मुझ पर 

तारी रहा है असर

अब आया है वो मक़ाम

जहां मुझे अब 

पता एक बेखबर चाहिए

जहां भर से जुदा

उम्र एक बेअसर चाहिए

बुलंद हो मेरी राह की वो इब्तेदा

जहां दिल को सुकूं ओ ज़फ़र चाहिए

दिन भर जहां रात को घर चाहिए

इस छोटे से जी को जाने क्या क्या चाहिए।

दिन भर जहां रात को घर चाहिए।


सौम्या वफ़ा।©


शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

वफ़ा

 तेरे मेरे बीच दायरा

दुनिया के दस्तूरों का है

ये फा़सला मीलों का नहीं

चंद फ़ैसलों का है

वफ़ा की क़ीमत 

हर बार अदा नहीं होती मुहब्बत से

ये बेवफ़ाई नारसाई की फ़ितरत सा है

जो है आज यहीं है

कल के अरमानों की जेबों में

सिक्का सिर्फ़ कसूरों का है

आज है तो जी लो

कल को रिश्ता सिर्फ़

तोहमतों का है

ना हम दिल लगाएं

ना तुम करो दिल्लगी

ज़िन्दगी की क़ैद में

चंद घड़ी को जीना

मोहलतों सा है

दो सांस में बांट लो उम्र आधी आधी

कि मुहब्बत से ख़ाली दुनिया

 ढूंडती है मशगूली में मुहब्बत

मुहब्बत काम बड़ी फु़रसतों का है।


सौम्या वफ़ा।©