सोमवार, 20 जुलाई 2020

मनचली

मनचली के साथ साथ
अब उसकी कवितायेँ भी बढ़ चली हैं
ज़िद्दी अलबेली सी मनचली
जो खुद की ही सुनती
अपनी ही धुन में गुम नाचती कूदती
उसकी धुनों से 
आड़ी तिरछी  निकलती कवितायेँ
अब बहता मधुर संगीत बन चली थी 
कड़वी कड़वी सी बातें उगलने वाली
शहद सी घुलने लगी थी 
पहले  कहती थी की मैं लिखती हूँ
पर अब कहती है कि
खुद ही सब लिख जाता है
मैं कुछ नहीं लिखती !

मनचली अब सयानी हो चली थी
जानते सब थे उसे
मगर अनजानी हो चली थी
पहचानते सब थे उसे
मगर बेगानी हो चली थी

दुनियादारी के दस्तूरों से नावाक़िफ़ 
वो  खुद में एक दुनिया हो चली थी 

पहले पन्ने भरने को तरह तरह की
डायरियां भरा करती थी

अब हर पल जी भर कर
जीने में  इतना मशगूल है
कि खुद ही किताब हो चली है

रंगों को अब वो नहीं सजाती
रंग उस पर सजते हैं

बातें वो नहीं बनाती
अलफ़ाज़ उस पर फ़बते  हैं

स्याही से कुछ नया नहीं उड़ेलती
अब जिधर भी देखती है उधर
पलकों से ही लिखती है

ज़िद्द अब भी है
पर अब किसी और से नहीं

खुद की ज़िद से खुद रोज़
हारती खुद रोज़ जीतती है

वो कोई और ही थी
जो छुप छुप के रोती थी
ये तो बस बेवजह ही
कोई राज़ मन में दबाये सा
हर पल ही हंसती है

पहले ख़्वाबों में जीती थी
अब सोते हुए भी
दिल खोल के खिलखिलाती  है

वो जानती है शायद
वो ख़्वाब  सारे
हर रोज़ ,अब उसे जीते हैं

जिन्हें कभी
वो सपने कहकर पुकारती थी

उड़ने का सपना लिए मनचली
सपनों और ख़्वाबों से कहीं बहुत दूर

बहुत आगे आकर 
हवा में खुशबु सी घुल गयी है
क्या पता !
गुम हो गयी है ,कि
मिल गयी है !

मनचली अब ना छोटी बच्ची है
ना कोई खोयी हुयी सी लड़की
ना ही वो कोई भरी पूरी सी स्त्री ही है

मनचली ने लिखा आखिरी बार
पन्ने पर एक हर्फ़ 'कविता'
और फिर बंद कर दिया उसे
यूँ ही खुला छोड़ के

जीते जाने के लिए हमेशा

मनचली सबसे आगे निकल के
अब रूह हो चली है
और मनचली के साथ साथ
उसकी कवितायेँ भी बढ़ चली हैं।



सौम्या वफ़ा। ©

मैं से मैं मिलके हम बन जाऊं

बोझ की गठरी गंगा बहा के
ताले में बंद कर सब दिखलावे

मैं पीछे छोड़ सब सिंगार पहनावे

बस जो हूँ बस वो रह जाऊं

मैं तज के दुनियादारी सब
सीधी  सीध में बढ़ जाऊं
सीखी सिखाई रटी रटाई
भुला के सब
एक नया ज्ञान हो  जाऊं

मैं से मैं मिलके हम बन जाऊं

बादलों के रेगिस्तान में
भाप सी खो जाऊं

क़तरा  क़तरा  जो ढूंढे कोई तो
क़तरा  भी ना मिले

जो  ढूंढे कोई जीवन तो
साँसों में समा जाऊं

मैं छोड़ के बाबुल की गली
ख़ुदी  को ख़ुदा  जानके
ख़ुद  को कहीं ढूंढूं बसाऊं

मैं तोड़ के सब नाते भरम के
सात आसमाँ  दूर उड़ जाऊं

तूफाँ जो आये राह में
मैं बवंडर बन लहराऊँ

कोई हो जो हाँथ ,
थामे जलती धूप में
तो पुरवैय्या बन माथे को सहलाऊँ

मैं थकूं भी तो ठहरूं ना
कभी झूमूँ , नाचूं, उडूं ,बलखाऊँ
कभी आहिस्ते आहिस्ते चलती जाऊं

मैं तोड़ के माटी की गगरिया
बूँद बूँद में  उतरूं
और तर जाऊं

मैं से मैं मिलके हम बन जाऊं

मैं पीछे छोड़ सब सिंगार पहनावे
बस जो हूँ , बस वो रह जाऊं।



सौम्या वफ़ा। ©

एक शांत शीतल सी लड़की

एक शांत शीतल सी लड़की  जो
 गीत लिखती है आज़ादी के

पन्नों पर उतारती है सपने सुलगते
हरी भरी आबादी के

 दहकते अंगारों के कुछ निशाँ
मिट जाते हैं जो बारी बारी
 उसके ठन्डे मीठे स्पर्श से

उसकी आँखों के दहकते दो खुर्शीद
उबल से पड़ते हैं स्याही बनके

एक एक  गरम सुलगते शब्द उसके
चमकते हैं पीले पन्नों पे तारे बनके


कभी ख़ुशी ख़ुशी सब समेट के
कभी मन मार के
सब बिखेर के

दुनिया से दूर एक नयी दुनिया बसाती है

जब जब वो गीत लिखती है आज़ादी के

हौले हौले ठंडी पुरवैया सी बहती लड़की
आग़  सी बरस जाती है काग़ज़ पे

जल जाता है काग़ज़ कुछ
कुछ निशाँ रह जाते हैं उसके हाथों पे

सुन्दर  बेदाग़ सी लड़की
दाग़ों के तमगे टाँगे सीने पे

रात की किताबों में  चमकती है
चाँदनी उड़ेले ,चाँद बनके
राह दिखाती है  धरती के
भूले बिसरों को

आसमान में उड़ती कहानी के

एक शांत शीतल सी लड़की
जो गीत लिखती है आज़ादी के।



सौम्या वफ़ा। ©

सोमवार, 13 जुलाई 2020

गीत - '' सांवरी घटा छायी ''

घनन घनन उमड़े बरसे मेघ
मेघ बरसे  ,बरसे मेघ
सांवरी  घटा छायी
पुरबइया छुमक छुमक चले
छम छम
पुरबैय्या छुमक छुमक चले छम छम
सरसर सरसर झर झर झर
संदेसा सावन का ले आयी
बरसी बूँद बूंदा बांदी
प्यासे जलत जिया को ठण्ड लायी
घुमड़े मेघ गगन पे घन घन घमक घमक घन घन घन घनन घनन घन घन  घन घन घननन घननन नननन नननन
घुमड़े मेघ गगन पे घन घन
प्यासी दौड़त गोरी अंगना आयी
छोड़ के बारहमासी बिरह
छोड़ के बारहमासी बिरह
गोरी  मन धुन सावन  रमाई
कूके कोयलिया  नीम डार पे
कूके कोयलिया नीम डार पे
गोरी पीयू पीयू सुर मिलाई
लगाए गोरी  माई से मनुहारें , मनुहारें
लगाए गोरी  माई से मनुहारें
सखी सखियाँ पुकारें 
देख देख गोरी मन
माई बाबा से जिद लगवाई
गोरी सखी संग अंगना में
अमवा पे  झूला डलवाई
पीपल छैयाँ बैठे सखियाँ
गोरी भर नैनन में साजन 
ऊंची  पेंग बढ़ाई
सखियाँ संग गाँवे कजरी
गोरी के मन बाजे मल्हार बधाई
गगन पर बरसे  रंग गुलाबी
गोरी तन छायी हरियाली
साजन सजनी सखी सहेली
नाचे रिमझिम रिमझिम रुमझुम रुमझुम
झूमक झूमक झूमक झुम झुम
गोरी पाँव थिरके ताल
जो ताल बरसाए बरखा मतवारी
छोड़ के सब बिरज के काज
छोड़  के सब बिरज के काज 
गोरी नाचे आज छमाछम  बिन लाज
उड़े चुनर बसंती
संग पुरवैय्या के
दे गोरी की ताल पे ताली
सूने माथे साजे सोलह बिंदिया
होठ पे चपला बन चमके लाली
बावरी जोगनिया आज हरि  पिया की , पिया की...
बावरी जोगणिया आज हरि पिया की
नाचे बन दुरहन मतवारी
हाँथ रचाये मेहंदी
सजाये सोलह सिँगारी
गोरी भीजे
भीजे हरि
भीजे तन मन
गोरी भीजे
 भीजे हरि
भीजे तन मन
भीजि हरि के रंग हरी अंगिया
भीजे गोरी के रंग हरि  हर हर
हर हर हरि रंगे गोरी रंग
सावन सारी  हरी हरी हरि रंग रसिया
गोरी को सावन में बहार लागी
गोरी  के जी को लागा  जियरा
गोरी  के जी को लागा  जियरा
नाचे पग पग बन बन
पग पग सर नवाये बृंदाबन
गोकुल पे बरखा छायी
हरि के जी में देखो जी
हरि के जी में देखो जी 
हरि के जी गोरी समायी
सांवरे संग सांवरी बरखा आयी
सांवरे संग सांवरी बरखा आयी
 घनन घनन उमड़े बरसे मेघ
मेघ बरसे 
साँवरी घटा छायी
घनन घनन उमड़े बरसे
घुमड़े मेघ गगन पे घन घन घमक घमक घन घन घन घनन घनन घन घन  घन घन घननन घननन नननन नननन
घुमड़े मेघ गगन पे घन घन
सांवरी  घटा छायी
घटा छायी
घटा छायी
सांवरी घटा छायी.... । .


गीत - सौम्या वफ़ा। ©

गीत - '' घटा बरसी ''



घनन घनन घटा बरसी
 बरसी घटा घनन घनन बरसी
बन घटा घट घट घर से पनघट तक बरसी
पहले सावन में पहली बार बरसी बरसी बरसी
बन घटा घट घट घर से पनघट तक बरसी
पहले सावन में पहली बार बरसी बरसी बरसी
घनन घनन भीगी मन भर
भीजि सब गली गलियार
भीजि अंगना में जमी फुलवार
नयना बरसे मेघ बन
बिजुरी बन हूक चमकी
कहे  सजनी  साजन को
संग साजन के पाऊं जितना
बन बनवारी को मन बावरी
भर भर गागर उतना तरसी
सजनी प्यासी बिरहन बन
प्यासी जनम जनम की
सागर बन डूबी
डूबी डूबी डूबी
जितना उतना फिर भी तरसी 
बनी एक ही बार प्रिये की
प्रियतमा
बाकी जोगन ज्वाला बन भड़की
बनी गुंजन सुन मधुर भ्रमर की
पाती पाती खिली अलि की नलिनी
जे घर बार सजाये घरनी
बनी एक ही बार साजन की सजनी
हारी खेल प्रेम का पिए से
दुल्हन बन सजी  एक बार
जोगन बनी  हर रोज़ फिरती
लागि बेसुध बावरी को
जोग की धुन मलंगी
ढूंढे दरबदर प्रिये पिए
पिया को बन जोगनी
छम छम छम दौड़े
डगर डगरिया
डगर डगरिया
छलकी जाए नैनन से भरी भरी
प्रेम गगरिया
दौड़ी सुध बुध
खोये गंवाए सब
जैसे चपला सी गरजी
पाए पिया को तो
ठौर पाए सजनी
पहले सावन में पहली बार बरसी
बरसी बरसी बरसी
पहले सावन में पहली बार बरसी
कंकन सी मतवारी
ठोकर खायी
 गिरे जाई , सम्भली
कन कन भीजा
असुअन जल सींचा
भिगोये जाए दीवानी
सारी धरती
पाती पाती डोली
पाखी पाखी बोली
निखरी संवरी धरा सारी
खिल उठी रंगों  की होरी
जग तज  भोरी भोरी
सांवरे को जो ढूंढन चली
सलोनी सांवरी प्यारी
लिए नाम मनमोहन की डोरी
मन  ना माने चितचोर का
लियो हर सांवरी की निंदिया
बन ऋतू पुरवैया चोरी चोरी
जो चली थी सांवरी भरन पनिया
ले घट घाट बन घटा
फिरे मन हारे डोली डोली
सांवरे की छवि को ताके
बन चकोर  दिन रैन
जो बाजे बंसी धुन
बिरहन  का उड़ जाए मन
बन चकोरी
ह्रदय में पिए कूके
कूके पिए पिए
पिए पिए रटे जाये
 पिए पिए टेरी
आ जाओ  जो सांवरे पिया
आये कुछ अमृत झोली
बरखा बरसे रिमझिम रिमझिम रिमझिम
ले संग पिए की बावरी को पिए
पिए का आलिंगन बने  बृंदाबन
नाचे जोगन मन पिए के आँगन
बन मोरनी
साजे सजनी साजन  संग
जैसे साजे सिन्दूरी चोली संग
हरी सावन में बसंती ओढ़नी
बन घटा घट घट घर से पनघट तक
बरसी
पहले सावन में पहली बार बरसी
बन घटा घट घट घर से पनघट तक
बरसी
पहले सावन में पहली बार बरसी
मनवारी  बनवारी  को मतवारी तरसी तरसी तरसी
घनन घनन घटा बरसी
 बरसी घटा घनन घनन बरसी
बन घटा घट घट घर से पनघट तक बरसी
पहले सावन में पहली बार बरसी
बन घटा घट घट घर से पनघट तक बरसी
 बन घटा घट घट घर से पनघट तक बरसी।

गीत - सौम्या वफ़ा। ©




रविवार, 12 जुलाई 2020

बचत

बचपन के बक्से से निकालीं
कुछ पेंसिलें पुरानी गुम हुई कहानियों की
जवानी की तेज़ धार से छीली
पेंसिलों से उतारीं
लहराती कविताओं की कतरनें
सजा लीं जिनसे बढ़ती उम्र की ओरिगैमी
बढ़ बढ़ के बढ़ चली
टूटी फूटी बोलियों की अपनी ही भाषाएं
संग बढ़ के बढ़ चलीं
छोटी से बड़ी हो चुकी आशाएं
पेंसिल से पेन
पेन से फाउंटेन पेन हुईं
महंगी से महंगी इंक हुईं
वो सारे चटपटी चाट से चुटकुले
वो सारी दो  रुपए में चार
जितनी सस्ती कविताएं
वो सारी हल्की फुल्की सी कहानियां
जिनके सहारे लिखे थे
टेढ़े मेढे आड़े तिरछे अक्षरों में
पहले पहले जज़्बात
वही सारे अब हुए
सोच समझ के लिखे
कैलक्युलेटेड इज़हार
डायरियों के किस्से बन गए दास्तां
और कागजों के पीले धब्बे
हुईं कविताएं बेकार
एक बड़ी गाड़ी हुई
एक घर, चारदीवारी हुई
कंप्यूटर, लैपटॉप
मोबाइल की
अपनी अपनी मेजें
अपनी अपनी आलमारी हुईं
जगह नहीं थी बची
तो टांड़ पे उठा के रख दिया
वो बचपन से भरा बक्सा कहानियों का
डालकर उसपे दादी की पुरानी लोई का पर्दा
कविताओं की कतरनें
पेनसिलों के साथ
अलविदा सी हुईं
कागजों के धब्बे पीले से भूरे हुए
जिनको अब भी सहेजे थी
कबाड़ से झांकती पहली डायरी
जिसके पन्ने अब भी कर रहे थे
हवा से बातें
जिसका रोशनदान थी
बाबा की फट चुकी बंडी
उसे तलाश थी नई रोशनी की
रोशनदान की नहीं
हवाई जहाज की खिड़कियों की

जिसके बीच से अब भी झांक रहे थे
दो सबसे पुराने साथी

जीवन की सबसे पहली समझ

 सबसे पहली आज़ादी

झांक रही थी पहली नांव
 झांक रहा था उड़ने का सपना लिए
 छोटा सा हवाई जहाज़
 ये सब समेटे डायरी
 अपनी जगह दोबारा बनाने से पहले
 बन गई कविता
 गुम हुई कहानियों की
 अब नए नए कंप्यूटर पर थी
 आज की ताज़ा खबर
 डायरी के पन्नों की जगह
 पब्लिक पोस्ट ने ले ली थी
 जहां कभी जिन्हें कोई नहीं पढ़ता था
 वो सब अब ज़ोर शोर से पढ़े जाते हैं
 और ख़ामोश जो कुछ भी नहीं लिखा जाता
 वो सब बन जाता है
 बिना किसी दस्तावेज़ के
 एक बहती जाती कविता
 एक अंतहीन कहानी
 बस जाते जाते आज बचा ली थी
 बचपन के बक्से से निकली
 जीवन भर की कमाई
 और बचत सारी जमा कर दी
 बुढ़ापे की तिज़ोरी में,
 ज़िंदा बची कहानियां
 मुस्कुराती कविताओं की।



सौम्या वफ़ा।©









शनिवार, 11 जुलाई 2020

फ़िर बारिश

उतरी एक बार फिर छत से कांच पे जो बारिश
धुली धुली है फ़िर से
धूल भरी जो थी यादें सारी
रंग सारे हैं फ़िर रंग बिरंगे
भीगे भीगे भीने भीने
कुछ हरे कुछ नीले
तुम कहो ना कहो
मैं मिलूं ना मिलूं
उतरेंगी जब जब बारिशें
याद आएंगी वो तारीखें
वो नई नई खिली कलियां
और वो बगिया से उखड़ी तुलसी
याद आएंगी वो मुलाकातें
वो शिकायतें
याद आएंगी वो रूठने मनाने की
मनुहारें  सारी
मेरी आंखों से गुज़र के
तुम्हारी धड़कनों में उतरती
 हवा की धुन बावरी
 याद आएंगी दो हाथों के बीच
 धधकती भरी बरसात में आग
 याद आएंगी वो सब सांसों की
 चढ़ती उतरती लयकारी
 याद आएगी
  उंगलियों पे चक्कर काटती हैरानी
  याद आएगी कांचों को सजाती
  दुनिया पे पर्दा डाले
  तेरी मेरी हर सांस की धुंध से बनी चित्रकारी
  याद आएंगे यादों में
  पांव भूल गए हैं जिधर का रास्ता
  रास्ते भूल गए हैं जो मंजिलें पुरानी
  वो रास्ते सारे फ़िर चल पड़ेंगे
  जब जब पांव के नीचे आएगी
  रिमझिम फुहार बनके पिचकारी
  दो आंसुओं के कतरे होंगे साथ हमेशा
  आंखों से कानों तक
  कानों से ठोनी तक झूल के उतरते
  जैसे हल्के हल्के इतराते मोती के बूंदे
 याद आएंगी खो चुकी खुशबुएं
 साथ साथ हल्की सी भारी
 मुस्कानों की गठरी
 याद आएंगी खुशियों के वादों पे मिली
 आंसुओं की सौगात
 याद आएंगी सारी बातें
 और उन बातों का हर हिसाब
 याद आएंगी समन्दर को बूंदों से भरकर
 तर देने की बात
 याद आएंगी आकाश की धरती से मिलन की
 वो अनदेखी बात
 याद आएगी वो तरपन की रात
 याद आएगी बाकी रह गई है
 मेरी जो हर बात
 याद आएगी तुमपे जो है बाकी
 मेरी मिट्टी की खुशबूओं की उधारी
 और बीत जाएंगी टपकते टपकते
 छत से
 कांच को धोते धोते बारिश सारी
 बाकी होंगी बाद फ़िर सर्दी की बर्फ़
 गर्मी की धूल
 जिनमें बिसर जाएंगे फ़िर ये
 गीत मल्हारी
 के फ़िर आएंगी जब बूंदें
 उतरेगी छत से कांच पे जो बारिश
 धुली धुली होगी फ़िर से
 धूल भरी जो थीं यादें सारी
 सिलसिला है ये मौसमों का
 सिलसिला रहेगा जारी....



सौम्या वफ़ा।©



 

बुधवार, 8 जुलाई 2020

ज़िन्दगी के नाम

ज़िन्दगी है निराली बड़ी
तीखी है
पर प्यारी है बड़ी
रूठे तुम हो बैठे यहां
जाने तन्हा कबसे
सुनी पुकार तुमने नहीं
ये कबसे तुम्हें बुला रही है
मना लो इसे जो ये रूठी है
जैसे मान जाएं
खेल खेल में गुड्डे गुड़िया
काहे की लड़ाई
काहे की जीत हार
मान जाओ तुम
ये तुम्हें माना रही है
काहे का मान अभिमान
काहे का लंबा कद
काहे का फ़िज़ूल ही सीना चौड़ा
थोड़ा सा सिर झुका के चलो
ये दामन में फूल बरसा रही है
मानो तुम या ना मानो
ये फ़िर भी आइने में
कुछ तो बता रही है
थोड़ा तुम रुक के इसकी 
ख़ैर खबर लो
ये तुम्हारी ही खैरियत पूछती जा रही है
ये अलबेली सी ज़िन्दगी
नीम हकीम सी महंगी है
कड़वी जैसे दवा की पुड़िया
सीख लो जो  इससे जीना
तो हर मर्ज का है इलाज
दर्द ले के फ़िर रहे हो यहां वहां
ये मुदावा ख़ुद में बता रही है
ना हो कोई मोल
तो बेच ना देना कहीं
किसी को कौड़ियों के भाव
जिनकी नज़र को परख़ नहीं
उनको हीरे में भी
लगती कंकड़ से भी सस्ती है
थके तुम हो
कहते हो ये रुकी रुकी सी है
देखो तो गौर से
तुम हो ठहरे
ये तो बहती ही जा रही है
सीख लो जो संग इसके बहना
तो फ़िर डूबने का क्या खौफ़
डूब भी गए तो क्या
ये ख़ुद ही तुम्हें पार लगा रही है
बस भरोसा निभा के देखो
बस हौसला बना के देखो
माना कि के कहना है आसान
जियो तो जीना है दो धारी तलवार
पर छोड़ने से पहले ज़िन्दगी का हाथ
लेना उनका ज़रूर कुछ ख़बरो हाल
जो मौत के इंतज़ार में
जाने कब से बैठे हैं
जीने को बेक़रार
क्या हुआ जो खाई हैं
ठोकरें तुमने दर बदर हज़ार
ये लेके सौ मर्तबा हर इम्तेहान
सिखाती है जीना फ़िर एक बार
सीख लो जो ये सिखा रही है
तुम्हें दिखा के महफिलें
ये अपनी ही धुन में अकेली चली
साथ ज़िन्दगी के वही चल सका
जिसे इसकी बावरी मौज की
धुन लगी
के गा लो सुर में सुर मिला के संग इसके
ये जो भी  नगमे सुना रही है
कर ना लेना हड़बड़ी में कोई
नादानी
कितनी भी हो मुश्किल
पर ये दुश्मन नहीं
यही तो एक पक्की सहेली है
झूठ मूठ के फेर में
कर लेना ना इससे कट्टी कहीं
ज़िन्दगी की बाहों में डाल के हाथ
चल पड़ो साथ इसके
जिधर भी ले जा रही है
ये रुक के करेगी ना तुम्हारा इंतज़ार
मौका है फ़िर भी हर रोज़ देती
जीने का एक बार
किसी बार तो सुन लो ज़रा जी
ये जाने जां तुम्हें ही बुला रही है।
ज़िन्दगी है निराली बड़ी
तीखी है पर है
प्यारी बड़ी।
किसी बार तो सुन लो
ये जाने जां तुम्हें ही बुला रही है।




"ज़िन्दगी के नाम"।


सौम्या वफ़ा।©