गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

उरूज

 सफ़र शुरु किया था

मुसाफ़िरों सा

बिगड़ गया था हाल मेरा,

ज़माने में

 काफ़िरों सा

हम तंग थे मगर

कलाकार थे

कुछ और ना सही

अपनी राह के शहकार थे

जाने क्या क्या चाहत थी

जाने क्या क्या हसरत थी

मिट गई सब दूधिया धुंधलके में

मंज़िल पे हक़ीक़त

शम्स सी नुमायां थी

ना कुछ चाहत थी

ना कोई हसरत थी

थी बस एक शिद्दत भरी कोशिश

है बस एक मुद्दत रंगी कोशिश

भटके मुसाफ़िर से राह हो जाने की

राह की निग़ाह हो जाने की

 उरूज पे पहुंच के

इंसां हो जाने की

उरूज पे पहुंच के

इंसां हो जाने की।



सौम्या वफ़ा।©






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