सफ़र में जो कहीं
प्यासी हो लूं
धूप घोल, पानी में पी लूं
एक निवाले संग सारा जग जी लूं
धरती संग बढूं पग पग
हवा को कंधे डाले डोलूं
ढलती शाम की सीढ़ी चढ़
आसमां की सिटकनी लगा दूं
मैं बादलों का एक कमरा बना
चंदा को बाहों में भर लूं
एक फूंक में उडूं
एक बूंद में डूबुं
एक क़तरा छू के
जलूं - चमकूं
कोयला- कोयला
पिस पिस हीरा बनूं
सोना सोना हो मिट्टी बनूं
मिट्टी बन बन
राख हो जाऊं
धुआं धुआं उभरूं
उभर के कहीं गुम हो जाऊं
किसी टूटते सितारे का
मेहताब हो जाऊं
वो बुझे जो तो मैं जलूं
उसके कतरे का मैं ज़र्रा
बन जाऊं
वो सिसके मैं आहें हो जाऊं
वो हंसे मैं मुस्कुराऊं
वो बोले नस नस में
मैं ख़ामोशी बन आलम में गूंजूं
बालू के ढेरों में तारे खंगालूं
उन तारों से अपना आईना तराशूं
एक दफा़ देखूं
आइने में ख़ुद को
मैं ख़ुद से मिलके ये जहां भूलूं
फ़िर आइने में ही कोई खिड़की बना लूं
जब जी चाहे ताकूं झाकूं
सूरत मिलती है यूं तो उसकी मुझसे;
मगर मैं तो उसे
ख़ुदा जानूं
आईना देख देख
मैं ख़ुद को क्या क्या ना समझा लूं
भर के फ़िर आइने को झोले में,
मैं इक और क़दम बढ़ा दूं
सफ़र में जो कहीं
प्यासी हो लूं
धूप घोल पानी में पी लूं।
सौम्या वफ़ा।©
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