मनचली के साथ साथ
अब उसकी कवितायेँ भी बढ़ चली हैं
ज़िद्दी अलबेली सी मनचली
जो खुद की ही सुनती
अपनी ही धुन में गुम नाचती कूदती
उसकी धुनों से
आड़ी तिरछी निकलती कवितायेँ
अब बहता मधुर संगीत बन चली थी
कड़वी कड़वी सी बातें उगलने वाली
शहद सी घुलने लगी थी
पहले कहती थी की मैं लिखती हूँ
पर अब कहती है कि
खुद ही सब लिख जाता है
मैं कुछ नहीं लिखती !
मनचली अब सयानी हो चली थी
जानते सब थे उसे
मगर अनजानी हो चली थी
पहचानते सब थे उसे
मगर बेगानी हो चली थी
दुनियादारी के दस्तूरों से नावाक़िफ़
वो खुद में एक दुनिया हो चली थी
पहले पन्ने भरने को तरह तरह की
डायरियां भरा करती थी
अब हर पल जी भर कर
जीने में इतना मशगूल है
कि खुद ही किताब हो चली है
रंगों को अब वो नहीं सजाती
रंग उस पर सजते हैं
बातें वो नहीं बनाती
अलफ़ाज़ उस पर फ़बते हैं
स्याही से कुछ नया नहीं उड़ेलती
अब जिधर भी देखती है उधर
पलकों से ही लिखती है
ज़िद्द अब भी है
पर अब किसी और से नहीं
खुद की ज़िद से खुद रोज़
हारती खुद रोज़ जीतती है
वो कोई और ही थी
जो छुप छुप के रोती थी
ये तो बस बेवजह ही
कोई राज़ मन में दबाये सा
हर पल ही हंसती है
पहले ख़्वाबों में जीती थी
अब सोते हुए भी
दिल खोल के खिलखिलाती है
वो जानती है शायद
वो ख़्वाब सारे
हर रोज़ ,अब उसे जीते हैं
जिन्हें कभी
वो सपने कहकर पुकारती थी
उड़ने का सपना लिए मनचली
सपनों और ख़्वाबों से कहीं बहुत दूर
बहुत आगे आकर
हवा में खुशबु सी घुल गयी है
क्या पता !
गुम हो गयी है ,कि
मिल गयी है !
मनचली अब ना छोटी बच्ची है
ना कोई खोयी हुयी सी लड़की
ना ही वो कोई भरी पूरी सी स्त्री ही है
मनचली ने लिखा आखिरी बार
पन्ने पर एक हर्फ़ 'कविता'
और फिर बंद कर दिया उसे
यूँ ही खुला छोड़ के
जीते जाने के लिए हमेशा
मनचली सबसे आगे निकल के
अब रूह हो चली है
और मनचली के साथ साथ
उसकी कवितायेँ भी बढ़ चली हैं।
सौम्या वफ़ा। ©
अब उसकी कवितायेँ भी बढ़ चली हैं
ज़िद्दी अलबेली सी मनचली
जो खुद की ही सुनती
अपनी ही धुन में गुम नाचती कूदती
उसकी धुनों से
आड़ी तिरछी निकलती कवितायेँ
अब बहता मधुर संगीत बन चली थी
कड़वी कड़वी सी बातें उगलने वाली
शहद सी घुलने लगी थी
पहले कहती थी की मैं लिखती हूँ
पर अब कहती है कि
खुद ही सब लिख जाता है
मैं कुछ नहीं लिखती !
मनचली अब सयानी हो चली थी
जानते सब थे उसे
मगर अनजानी हो चली थी
पहचानते सब थे उसे
मगर बेगानी हो चली थी
दुनियादारी के दस्तूरों से नावाक़िफ़
वो खुद में एक दुनिया हो चली थी
पहले पन्ने भरने को तरह तरह की
डायरियां भरा करती थी
अब हर पल जी भर कर
जीने में इतना मशगूल है
कि खुद ही किताब हो चली है
रंगों को अब वो नहीं सजाती
रंग उस पर सजते हैं
बातें वो नहीं बनाती
अलफ़ाज़ उस पर फ़बते हैं
स्याही से कुछ नया नहीं उड़ेलती
अब जिधर भी देखती है उधर
पलकों से ही लिखती है
ज़िद्द अब भी है
पर अब किसी और से नहीं
खुद की ज़िद से खुद रोज़
हारती खुद रोज़ जीतती है
वो कोई और ही थी
जो छुप छुप के रोती थी
ये तो बस बेवजह ही
कोई राज़ मन में दबाये सा
हर पल ही हंसती है
पहले ख़्वाबों में जीती थी
अब सोते हुए भी
दिल खोल के खिलखिलाती है
वो जानती है शायद
वो ख़्वाब सारे
हर रोज़ ,अब उसे जीते हैं
जिन्हें कभी
वो सपने कहकर पुकारती थी
उड़ने का सपना लिए मनचली
सपनों और ख़्वाबों से कहीं बहुत दूर
बहुत आगे आकर
हवा में खुशबु सी घुल गयी है
क्या पता !
गुम हो गयी है ,कि
मिल गयी है !
मनचली अब ना छोटी बच्ची है
ना कोई खोयी हुयी सी लड़की
ना ही वो कोई भरी पूरी सी स्त्री ही है
मनचली ने लिखा आखिरी बार
पन्ने पर एक हर्फ़ 'कविता'
और फिर बंद कर दिया उसे
यूँ ही खुला छोड़ के
जीते जाने के लिए हमेशा
मनचली सबसे आगे निकल के
अब रूह हो चली है
और मनचली के साथ साथ
उसकी कवितायेँ भी बढ़ चली हैं।
सौम्या वफ़ा। ©