मंगलवार, 30 जून 2020

मन

ये मन पापी,
बड़ा पुण्यवान है
यूँ तो सारे पापों की  खान है
पर जो मन का मन चाहे तो
मनका मनका फेर मन
मन ही अल्लाह राम है
मन ही किशन
मन ही एक
बुद्ध अटल
मन ही सत्यवान है
मन चले जो ढूंढ़ने सत्य तो
देखे ,छुए , मुँह लगाए
मन को भाये सब कुछ
मन पाए जग सारा,
पाए सब जो है मिथ्या
पर बिन मिथ्या का कलंकी
तिलक लगाए
मन छोड़ ना सके
वो जो भी छोड़ना चाहे

मन है प्रयोगों का विज्ञान !
या व्यसनी दुराचारी है !?

मन आदम का अब भी वानर है
जो ना चखे स्वाद तो
लड्डू , पेड़ा  भी
अदरक  है
मन है भरमाये सबको
करम से
मगर छुप के है नियत से निभाए
क्या पुण्य है क्या पाप
ये फैसला वही करे
जो मंतर फूंके
मन पे
नियत के उपाय,
मन बिन नियत के
बड़ा गुमनाम बड़ा अनजान है
बिगड़ जाये छटूले बच्चे सा !
जाने काहे का अभिमान  है ?
मन की करो तो मन 
एक सर्वोत्तम सखा
सुखवान है ;
मन की एक ना सुनो तो
बिगड़े सारे संधान हैं
ये मन पापी
बड़ा पुण्यवान है।


सौम्या वफ़ा।


रविवार, 28 जून 2020

दो लोग

दो बरस पहले दो लोग मिले थे
आज वो ढूंढ के भी नहीं मिल पाते हैं
लेकर आए थे साथ जो तुम
थोड़ी अपनी मिश्री थोड़ा अपना नमक
लेकर अाई थी जो मैं
थोड़ी अपनी शहद थोड़ा अपना नमक
अब ना तुममें मिश्री है
ना मुझमें नमक
अब ना मुझमें मिठास है ना तुममें नमक
बस अब तुम्हारी गर्मी मुझमें है
और तुम में सांस लेती है
मेरी वही गमक
आंखें अब भी जब टकराती हैं
बोलती भी हैं और शर्माती भी हैं
जान अब भी है
मगर उतनी ही जितनी
 सांस खींच ले जाती है
 दो हाथ अब भी एक दूसरे को
 एक ही जिस्म और जान का हिस्सा जानते हैं
 दोनों के सिर अब भी अपना अपना सिरहाना
 अपने हमजान के सीने पे पहचानते हैं
 बस पहले दो जानें
 खुशियों के लिबास में
 संवर कर आती थीं
 अब दो मर्ज़ मिलते हैं
 अपने अपने मुदावे से
 और कफ़नों में लिपट के आते हैं
 जीने भर को ज़रूरी हो जितना
 उतना भर
 हवा से नमक
 आसमां से मिश्री चुराते हैं
 जीने भर को ज़रूरी हो जितना
 बस उतना ही जी के रह जाते हैं।



सौम्या वफ़ा।(6/2/2020).

रात

रात तेरे पहलू से मैं
सुबह को जो निकला हूं
ख़ुद से बेगाना हूं
रूह से बिछड़ा हूं
सूरज ने दिन का उजाला
तो दिखाया है
पर रात के अंधेरों में
अपना साया खो आया हूं
रात तेरे पहलू से मैं
सुबह को जो निकला हूं
ख़ुद से बेगाना हूं
रूह से बिछड़ा हूं
दिन की सारी कमाई लेकर
कोई एक रात मुझे फिर
रात के साथ दिला दे
मैं रात रात भर
रात के लिए तड़पा हूं
रात तेरे पहलू से मैं
सुबह को जो निकला हूं
ख़ुद से बेगाना हूं
रूह से बिछड़ा हूं।



सौम्या वफ़ा। (18/8/2019).

खिड़कियां

ये खिड़कियां भी कमाल होती हैं
खिड़कियां नहीं ख़्वाब होती हैं
दम तोड़ते शहर में
जीते रहने की खुराक होती हैं
ये खिड़कियां भी कमाल होती हैं
तेरी खिड़की में झांकती मेरी खिड़की
हर बात का हिसाब होती है
दौड़ते हुए लम्हों का
थमा खि़ताब होती हैं
इस खिड़की की चाहत बेहिसाब होती है
एक छोटी सी ही खिड़की हो
मगर हो तो सही
उम्र भर यही मुराद होती है
एक खिड़की हो तुम्हारी
एक खिड़की हो मेरी
इस कोशिश में
हर रात तमाम होती है
ये खिड़कियां भी कमाल होती हैं।








सौम्या वफ़ा।(3/1/2019).

दुआ

जब हम नहीं पहुंच पाते
तो दुआ भेज देते हैं
नम आंखों को
नर्म आवाज़ को
ख़ुद में समेट लेते हैं
घर का दरवाज़ा खटखटाते हैं
केवल मुस्कुराहटें और तोहफ़े
और बातों बातों में ही बस
मिठाईयां बटोर लेते हैं
हलक में जाने क्या अटक सा जाता है
झाड़ पोंछ कर उसे फ़िर
एक बक्से में लपेट देते हैं
इसी तरह दूर दूर से हम
करीब के सारे
रिश्ते सहेज लेते हैं
जब हम नहीं पहुंच पाते हैं तो
दुआ भेज देते हैं।



सौम्या वफ़ा।(14/8/2019)

वादा

ज़्यादा तो कुछ नहीं
बस इतना वादा कर सकती हूं
तुम ज़िंदा रहो तो
जीते जाने का वादा कर सकती हूं
तुम फूल नहीं ना सही
पुंकेसर ही दे दो
मैं रस बनकर बरस जाने का वादा कर सकती हूं
मैं कल तो नहीं थी तुम्हारी
पर तुम मुझे आज दे दो
मैं आने वाले हर कल में
अपने हिस्से का ब्याज भर सकती हूं
गेहूं चुनकर आओ जब तुम
तो मैं ठंडे पानी का घूंट बन सकती हूं
ज़्यादा तो कुछ नहीं
बस अपने साथ साथ तुमको भी
ज़िंदा रख सकती हूं
तुम ज़िंदा रहो तो
जीते जाने का वादा कर सकती हूं
ज़्यादा तो कुछ नहीं
बस इतना वादा कर सकती हूं।


सौम्या वफ़ा।(11/8/2019).

थोड़ी अब भी ज़िंदा हूं मैं

थोड़ी अब भी ज़िंदा हूं मैं
कभी कभी आज भी ऐसा लगता है
खिड़की से आती हवा का
चेहरे को सहलाना अब भी अच्छा लगता है
सड़क पर चलते चलते बेखबर
सीटी बजाना अब भी अच्छा लगता है
अब भी अच्छा लगता है
शरारत करना
अच्छा लगता है पानी को छूना
किसी पंछी संग ख्यालों में उड़ जाना
टीन की छत पर नंगे पाओ फुदकना
दो बादलों के फुग्गों बीच
टांगे पसारे तैरते चले जाना
अब भी अच्छा लगता है
बुखार में आइसक्रीम खाना
अच्छा लगता है उड़ते जहाज़ की पूंछ पकड़ कर
हो हो चिल्लाना
किसी नौसिखुए की पतंग लूट लाना
अब भी अच्छा लगता है
पड़ोसी के घर की दीवारें फांद जाना
अच्छा लगता है अब भी
दरवाज़ा खटखटा कर भाग जाना
अब भी अच्छा लगता है
 छिपे रहकर टीप मार जाना
 अच्छा लगता है बस इस
 अच्छे लगने के एहसास में
 अच्छे लग जाना
 एक लंगड़ी टांग से
 इक्खट दुक्खट में
 दुनिया नाप जाना
थोड़ी अब भी ज़िंदा हूं मैं
कभी कभी आज भी ऐसा लगता है।




सौम्या वफ़ा।(9/8/2019).

कैक्टस

कैसे होता है यूं
कि जब सपनों के पास आते जाते हैं
तो वो जो दूर रहने पे
खिले थे प्रेरणाओं के फूल
वो कैसे मुरझा जाते हैं
हकीकत की सड़ांध और बू से
तब कितना ज़्यादा लगता है
कि काश
हर फूल के पास कांटों का सुरक्षा कवच होता
बिना किसी बाग़बां या माली के
कड़ी धूप में बिना पानी के
ज़िंदा रखता
फ़िर अचानक नज़र के सामने
जानी पहचानी मगर बिसर चुकी सूरत
खिल उठती है
ये बिसर चुकी सूरत बारह साल की
लिली जैसी नाज़ुक नर्म और मासूम सी लड़की है
फ़िर सोलह की टियूलिप
फ़िर अटराह की जूही
फ़िर बीस की ग़ुलाब
ये सारे फूल पत्तों के एल्बम में बदल जाते हैं
जहां यादें तो अब भी बहुत सी ताज़ा हैं
मगर वो सब अब सिर्फ़ यादें ही हैं
क्यूंकि उनमें से कोई भी अब ज़िंदा नहीं
और ये पन्नों के पत्ते पलटते पलटते
जा रूकते हैं छब्बीस की कैक्टस पर
जिसके जिस्म का रोम रोम
कांटों की तरह तनकर खड़ा हो जाता है
गर्व और मुक्ति से
आंखों में अब नमी नहीं आती
वो खूंखार और ठोस हो चुकी हैं
तो फ़िर नमी कहां गई ?
वो सारी कांटों को पालने में चली गई
और बची खुची नमी
का स्टॉक एक कोने में पड़ा है
क्या पता कब काम आ जाए
आखिर कांटों को सींचने में भी
नमी की ही ज़रूरत होती है
और इस नमी और कांटों के
मधुर संबंध के दरम्यान
रेत का बवंडर
धीरे धीरे अपनी जगह बनाता रहता है
जिसके इर्द गिर्द केवल वही पनपते हैं
जिन्हें संगीत के बजाए
डरावनी सांय सांय पसंद है
ऐसे खौफ़नाक से मंज़र में
जहां ज़िन्दगी का नामो निशान नहीं होता
वहां ज़िन्दगी की निशानी लेकर
गर्व से खड़ी होती हैं
मुक्त कैक्टस की ख़ामोश बाहें
नमी और चुभन का संतुलन बनाए हुए
जिसे बरसात का कोई इंतज़ार नहीं
जो बस एक बूंद में ही तर हो जाती है
और जी जाती है
मैं अब यही कैक्टस हो चुकी हूं
और अगर तुम अब
 फूलों से नाज़ुक बनकर आओगे
तो छिल जाओगे।





सौम्या वफ़ा।(29/1/2018).



गुच्छे

बस छह क़दम की जगह को
कुछ साइकिलों के गुच्छे ने
भीगने से बचा रखा है
ख़ुद भीगते जंक खाते ये गुच्छे
वो छत हैं
जिसके तले कई क़िरदार महफूज़ हैं
महफूज़ हैं
नन्हीं हंसी और किलकारियां
चूल्हे की आंच
तेल की झार
रोटी की ख़ुशबू
और गुड़ की मिठास
महफूज़ है कोई
लरजती कांपती बूढ़ी आवाज़
और महफूज़ है किसी के दो हाथों की
चार चूड़ियां
साथ ही महफूज़ है
इसके सवार की भीगती रूह
जिसका जिस्म अब महज़ कंकाल है
इस तरह से बस छह क़दम की जगह को
कुछ साइकिलों के गुच्छे ने
भीगने से बचा रखा है।



सौम्या वफ़ा।(1/1/2019).

सोनू टी स्टॉल

अंडे  , भुजिया, पकौड़ियां
चाय, अदरक, टॉफियां
गणेश जी को उम्मीद से निहारते
साईं बाबा
अंधेरी शेल्फों में छिपी पड़ी
सिगरेट की डिब्बियां
जलने को त्यार लटका
रंग बिरंगा लाइटर
माचिसों की पुलिया
मौसम में ठंडी बरसात
हर चाय के प्याले में राहत
और टकटकी लगाए
कुछ सीली चूरन की गोलियां
हर पुड़िया में छोटी छोटी खुशियां
ये सब कुछ था
सोनू टी स्टॉल पे
बस नहीं था
तो सोनू टी स्टॉल पे कोई गाहक नहीं था
कुछ लोगों को वो ख़ुद याद नहीं थे
और कुछ को लेमन ग्रास के क्रेज़ में
आड़ी तिरछी बढ़ती अद्रकों की याद कहां।



सौम्या वफ़ा। (28/6/2019).

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी से और कुछ नहीं
बस एक सांस भर ज़िन्दगी चाहिए
एक सांस जिसमें सारी हवा भर के
ज़िन्दगी बादलों के बीच उड़ती हो
एक सांस जिसमें सारी फिज़ा भर के
किसी पागल धुन में
मेरी रूह फिरती हो
एक सांस जो आख़िरी हो
मगर उसमें पहली सांस वाली बात हो
एक सांस जिसमें घुल के
हवा इत्र बन जाती हो
एक सांस जो छूटे जां से
तो मुस्कुराती हो
एक सांस जो बिना वजह मन को गुदगुदाती हो
ज़िन्दगी से और कुछ नहीं
बस एक सांस भर ज़िन्दगी चाहिए।


सौम्या वफ़ा।(6/1/2019).



दो बीज

इक रोज़ जब मैं आंगन में खड़ी
सूप में इश्क़ पछोर रही थी
तब अनजाने में ही
तुम्हारे इश्क़ के दो बीज
मेरे आंगन के कोने में जाकर छिप गए
कई रोज़ बाद देखा
वहां नन्हीं नन्हीं हरी कोपलें फूटी थीं
मैंने सोचा क्यूं ना इन्हें
बीच आंगन में
तुलसी की छांह में रोपूं
पर जैसे ही मैंने उन्हें
इस एहसास से हाथ लगाया
वो दोनों सहम कर सकुचा गए
वो तुलसी के साथ नहीं
बल्कि एक कोने में अपना घर बसाना चाहते थे
नलके के पानी से नहीं
बारिश के इंतज़ार से ख़ुद को
सींचना चाहते थे
फ़िर ख्याल आया
ये हमारे इश्क़ की फूटी कोपलें ही तो हैं
इन्हें बारिश का ही इंतजार रहेगा
इन्हें तुलसी की छांह नहीं
अपने सर पर
छोटे से आसमान का ही इंतजार रहेगा।



सौम्या वफ़ा। (7/1/2019).

शनिवार, 20 जून 2020

क़दम

जिस घर से चले थे उसी की राह भूल जाते हैं
उठते डगमगाते क़दम कहीं गुम जाते हैं
कुछ को ख़ुद याद नहीं रहता कुछ भी
कुछ गुमशुदा हो जाते हैं
कुछ उन्हीं भूली बिसरी सी शक्लों में लौट आते हैं
कुछ मिल के भी नहीं मिलते
कुछ मिलते हैं तो
बस निशां रह जाते हैं
कुछ जाते हैं तो उन्हीं क़दमों पर
चौदह चांद चमक जाते हैं
कुछ को ढूंडो तो
सोलह सिंगार मिल जाते हैं
बाकी चार क़दम की तलाश में
बस इश़्तहार रह जाते हैं
कुछ क़दमों की आहट से
रोशन आंगन जगमगाते हैं
कुछ भटके थे सुबहो को
तो शाम को भी नहीं
लौट पाते हैं
नादां क़दम जिस घर से चले थे
उसी की राह भूल जाते हैं।




सौम्या वफ़ा।०

रविवार, 7 जून 2020

घर और शहर

टूटे टूटे टुकड़ों से जो कुछ भी
बसाया है टीन टप्पर का शहर
बड़े सबर से भरे पूरे बसर का
ख़्वाब लगाया है दांव पर
कभी तो जज़्बे सा लगता है
कभी लगता है दीवानगी
कभी कहता है जो है सब यहीं है
फ़िर मुकर जाता है
जब हो बात सच की
दिल जानता है वो देता है झूठी गवाही
कहीं है अपना सब
तो अपने नहीं
कहीं अपने हैं तो अपना जो है वो नहीं
एक छत है सुनहरी अरमानों की
जहां भीड़ है बस अनजानों की
एक ज़मीं है मां की कोख़ सी नरम
मगर वहां पंख पसारने को
 सारा आसमां नहीं
एक महल है हसरतों का जिसे
घर बनाने की बेवजह है सारी मशक्कत
एक है गहरा दरख़्त मज़बूत
और एक है नन्हा शजर
एक टूटी फूटी छप्पर तले
छोटे छोटे बीजों की बोई है सारी जागीर
इक छत पर है नाम कल की सुबह का
इक ज़मीं है पीछे छूटी उम्र की तामीर
दुनिया से नहीं अरमानों से हैं खफा
इन अरमानों पे चढ़ी हैं कई
अनकही ठोकरों की कहानी
जिनकी मुस्कुराहटों के पीछे
 छिप जाती है मेरी पशेमां तन्हाई
 कितनी बार अश्कों के सितारे
 चमका देती है किनारों पर
जाने कितनी मजबूरियों की बानगी
 जब जब होती है पाओं तले ज़मीन से
एक अदद छत को रवानगी ।


@सौम्या वफ़ा ०।©

सोमवार, 1 जून 2020

डोर

कच्ची डोर है इश्क़
बिजली का तार नहीं
हौले हौले उठती गिरती
तरंगें हों,तो है बात कोई
एक बार के झटके में
जल जाने का मज़ा ख़ाक नहीं
इश्क़ की डोर चले थोड़ी सीधी
उड़ ले सांसें भर के जब ढील दें
तनातनी की बात में
तोड़ मरोड़ है
रिश्ता बेजोड़ नहीं
तेज़ आंच पे चढ़े इश्क़ में
मद्धम आंच का स्वाद नहीं
छूटे अगर हाथ तो
छोड़ दो सरल डोर भी
टुकड़ों से ख़ाली हाथ भले
टुकड़ों से बसता संसार नहीं
डोर आए तो सहेज लो
गांठों का पैबंद का कोई मोल नहीं
जो जाने कि इश्क़ है
तार बिजली
वो छिपा छिपा रखते हैं जेबों में
ख़ुद के हांथ जले
इश्क़ की डोर सब्र से
चरखा चढ़े
हौले हौले कातें
हौले हौले सिएं
चाहे तो बना लें ओढ़नी
चाहे तो रज़ाई बुन लें।


सौम्या वफ़ा।०©