शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

नूर

 नूर, 


तुमने पानी की दीवार पे 

रोशनी के झिलमिलाते हुए 

पर्दे  छुए हैं कभी ? 

जिनपे परछाइयाँ  

कभी बीज, कभी फूल, 

कभी फ़सल और कभी तरंग बनाती रहती हैं?

घेरे और जाल भी बनाती हैं 

उंगलियां,हथेलियां 

बाज़ुएं , पाँव  और पंख भी बनाती हैं 

हम सब उसके इस पार होते हैं 

और ज़िन्दगी 

उस पार 

 बताओ,छुए हैं कभी ?

नहीं, माया 

मैंने कभी नहीं छुए!

बताओ कैसे होते हैं?

खुशियों जैसे या ग़म जैसे?

हक़ीक़त जैसे या ख़्वाब  जैसे?

हसरत जैसे या दुआ जैसे ?

जिस्म जैसे या लिबास जैसे?

खुशबू जैसे या धुएं जैसे ?


ओह...तुम मुस्कुरा रही हो... 

मतलब किसी छिपी चाहत जैसे !!!

कोई, राज़ जैसे... 

हाँ,

मोहोब्बत पाने की चाहत जैसे !

नहीं???

नहीं !!!

उसके भी आगे की बात है ये नूर !

जहाँ ज़िन्दगी मिलती है 

हमसे पहली बार,

जब हम खुद मुहब्बत हो जाते हैं 

तब सिर्फ मोहोब्बत ही होती है 

कोई चाहत नहीं 

मोहोब्बत जिसका होना 

हमसे पहले भी था 

और हमारे बाद भी रहेगा 

बस सोचा की आज उससे मिल आऊं 

उसे छू  आऊं

तो , फिर माया 

तुम मेरा हाथ क्यों थाम कर बैठी हो?

क्यूंकि पानी की दीवार मैं नहीं तोड़ सकती 

उसे मैंने ही जो बनाया है !

पर झिलमिलाते पर्दे 

उसको हाथों में लेकर ज़िन्दगी ज़रूर बन सकती हूँ!

तभी लोग उस परदे को 

ख़ुदा का नूर कहते हैं!!!


-सौम्या वफ़ा। ⓒ

 


 


 


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