शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

ज़ेहन

 कुछ है  ज़ेहन में 

जो साथ नाचना चाहता है 

बादलों के, 

कुछ घुमड़ रहा है 

ज़ेहन में फिर आज 

जो बरसना चाहता है बारिशों के साथ 

कुछ है कान में पड़े बूंदों सा 

कुछ लटों में अटका सा 

माथे पर से घुलती बिंदी सा 

घुलकर मसलती मिट्टी  सा 

जानती हूँ जिसे 

 पर जिसका नाम नहीं मिलता 

एह्साह है, महसूस होता है 

 क़रीब सा 

बस पता नहीं मिलता  

छू कर गुज़र जाता है 

बस चेहरा नहीं मिलता 

मोहोब्बत भी नहीं है  वो,

वो ज़िन्दगी भी नहीं है 

पर बीच का कहीं कुछ मिल रहा है  

जहाँ डुबोते हैं सब 

वहीँ कुछ तिनके सा खिल रहा है 

हाथ भी नहीं, साथ भी नहीं 

ख्वाब नहीं, मुराद नहीं 

है कुछ जो 

अपने आप से 

अपने में मिल रहा है 

कुछ तो बात है की ख़ामोशी में  

तारों सा सिल  रहा है

बर्फ़ की ऊंची इक पहाड़ी पे  

सिरहाने के चाँद सा पिघल रहा है 

रेत के संग माटी बन 

परतों सा चढ़ रहा है 

लिबास के तागों  सा खुल रहा है

ज़ेहन की क़िताब पे 

जिल्द सा 

ख़त्म को शुरुआत से मिला रहा है 

मुझे मेरे आप से जिता रहा है 

कुछ है जो दरख़्त पर हवा सा छा  रहा है 

चुप रह के धीरे से उड़ जाता है 

वो जो सूखे पत्तों में पंख लगाना चाहता है 

ज़ेहन में बस के 

ज़ेहन को जिस्म से आज़ाद चाहता है 

जीते जी मुझमें 

तीरथ धाम बनाता है 

मैं मुस्कुराती हूँ तो 

वो भी मुस्कुराता है 

मैं जानती हूँ जो कुछ भी 

वो उस जानने को पहचान बनाता है  

 वो मेरा ज़ेहन ही है 

जो मेरे ज़ेहन को बार बार जगाता है 

टूटता है तो सजाता है 

गुम होयुं मैं दुनिया से दूर कहीं 

तो मुझमें जुड़ नाम हो जाता है 

मिलके फिर सब 

रिस रिस के सब 

बूंदों सा 

सितारों सा 

ज़र्रों सा 

चिराग़ों सा 

गुमनाम कहलाता है !


- सौम्या वफ़ा। ⓒ




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